रांची: अगर वाकई समाज और सरकार आदिवासी महिला हित की बात सोच रही हैतो उसे आदिवासी परंपराओं और उनके साहित्य की ओर ध्यान देना होगा. स्थानीय एचआरडीसी में सखुआ संस्था द्वारा आयोजित दो दिवसीय संगोष्ठी में साहित्य और समाज से जुड़े प्रतिनिधियों ने यह बात कही. कवयित्री निर्मला पुतुल और कुसुम ताई आलम ने आदिवासी साहित्य के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए कहा कि आदिवासी महिलाओं के लिए साहित्य में भाग लेना महत्त्वपूर्ण है ताकि वे अपनी कहानियां बता सकेंअपनी राय व्यक्त कर सकें और दूसरों को समझने के लिए अपने इतिहास और संस्कृति को संरक्षित कर सकें. सखुआ की संस्थापक मोनिका मरांडी ने कहा कि आदिवासी महिलाओं को विकास की राह पर आगे बढ़ना हैतो उन्हें एकजुट होने की जरूरत है. इसके लिए आदिवासी महिलाओं का एक नेटवर्क बनाने की कोशिश की जा रही है. इस कार्यक्रम के पहले दिन आदिवासी महिलाओं की घरेलू हिंसायौन हिंसाकार्यस्थल और शैक्षणिक संस्थानों में भेदभाव और मानव तस्करी सहित अन्य मुद्दों पर विचार व्यक्त हुआ और अगले दिन इनके समाधान पर चर्चा के साथ इनके समाधान हेतु भविष्य की योजनाओं पर बात हुई. झारखंड की पूर्व शिक्षा मंत्री गीताश्री उरांव ने कहा कि भले ही महिलाएं देश की आबादी का लगभग आधा हिस्सा हैंलेकिन महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों में 33 फीसदी के साथ उनका प्रतिनिधित्व कम है. हालांकि वे पंचायत स्तर पर आदिवासी महिलाओं की उपस्थिति देखती हैंलेकिन उच्च सदनों में यह ज्यादा नहीं है. आदिवासी महिलाओं को राजनीतिक क्षेत्र में अपनी आवाज उठाने के लिए एक-दूसरे का समर्थन करना होगा.

उरांव ने कहा कि झारखंड में डायन-बिसाही के मामलों पर भी ध्यान देना होगाजहां आदिवासी महिलाओं को प्रमुख रूप से निशाना बनाया जाता है. डॉ वासवी किड़ो ने वन विभाग के दावों को चुनौती दी कि हाल के वर्षों में झारखंड में वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है. उन्होंने आदिवासियों के लिए विस्थापन को एक प्रमुख मुद्दा बतायाजिसने विशेष रूप से आदिवासी महिलाओं को घरेलू नौकरानी के रूप में दिल्ली जैसे बड़े शहरों में पलायन करने के लिए मजबूर किया है. उन्होंने कहा कि दिल्ली एक नई तरह की गुलामी की जगह हैक्योंकि झारखंड की लाखों आदिवासी महिलाएं वहां अनौपचारिक क्षेत्र में काम कर रही हैं. महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए आगे आने की जरूरत है. विकास ने हमें कुछ नहीं दियाइसने केवल हमसे लिया. सामाजिक कार्यकर्ता अगस्टिना सोरेंग ने बताया कि आदिवासी महिलाओं के लिए भारत के संविधान का अध्ययन करना कितना महत्त्वपूर्ण है. एक कार्यकर्ता के रूप में सोरेंग स्कूलोंगांवोंयहां तक कि शादियों में भी भारतीय संविधान की पुस्तिकाएं बांटती रही हैंताकि सभी आदिवासी महिलाओं को पता चले कि वे इस पितृसत्तात्मक समाज में बराबर खड़ी हैं और शोषण के खिलाफ अपनी आवाज उठा सकती हैं. इस अवसर पर कुंद्रासी मुंडाअलोका कुजूरलक्ष्मी गोपबसंती सरदारऔर सुनीता लकड़ा जैसी शख्सियतें भी उपस्थित थीं.