लंदन: स्थानीय आक्सफोर्ड बिजनेस कालेज परिसर ब्रेंटफोर्ट में भारोपीय हिंदी महोत्सव के दौरान आयोजित प्रभा खेतान फाउंडेशन के ‘कलम-ओ-उत्सव‘ के ‘पर्वत, पात्र और परिकल्पना‘ सत्र में लेखक-पत्रकार लक्ष्मी प्रसाद पंत और लेखिका प्रत्यक्षा से उत्सव की निदेशक अपरा कुच्छल ने बातचीत की. पंत का बचपन गढ़वाल की पहाड़ियों में बीता है, तो प्रत्यक्षा बचपन से ही रांची के आसपास के आदिवासी जीवन को जानने और समझने में लगी हैं. शायद इसी वजह से यह संवाद पर्यावरण को लेकर साहित्यिक सरोकारों और विमर्श पर केंद्रित हो गया. इस दौरान इन लेखकों ने आदिवासियों की जीवन शैली में तथाकथित आधुनिकीकरण के कारण होने वाले नकारात्मक प्रभाव, धार्मिक स्थलों के पर्यटन स्थलों में बदलने, सड़कों के फोर लेन या सिक्स लेन में करने, बद्रीनाथ के आसपास के संवेदनशील पहाड़ों पर हेलीकाप्टरों की अंधाधुंध आवाजाही, हिमालय के दरकते पहाड़ों पर बेतरतीब निर्माण के दुष्परिणामों को लेकर चिंता जताई. ‘बदलती लहरें: नारीवाद का विकसित परिदृश्य‘ सत्र में अल्पना मिश्र और अनामिका ने तिथि दानी से संवाद किया और यह बताया कि आज की नारी अपनी प्रज्ञा से आत्मनिर्भर है.
‘बेहतर कहानी की भूमि- अपनी भाषा अपने लोग‘ एक सत्र में विद्वान सच्चिदानंद जोशी, लोकप्रिय साहित्य से जुड़े संजीव पालीवाल के साथ भी अपरा कुच्छल ने ही चर्चा की. इस सत्र के वक्ताओं का मानना था कि आज की युवा पीढ़ी के पढ़ने-लिखने के माध्यम में बदलाव आया है. वह एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे पर तेजी से फ्लिप करता रहता है, उसे इंस्टाग्राम पर कुछ ही सेकंड में अपनी बात कहने का माध्यम अधिक सुहाता है. इसलिए हम लेखकों को समझना होगा कि वह क्या चाहता है. ‘भाषा और संस्कृति बोध‘ सत्र में सच्चिदानंद जोशी और अनिल शर्मा जोशी के साथ पद्मेश गुप्त के संवाद में यह बात उभर कर आयी कि आक्रांताओं और आतताइयों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रंथों को जलाने के बावजूद भारतीय संस्कृति इसलिए बच सकी क्योंकि वह दिल और दिमाग में बसी हुई थी. ‘नमक स्वादानुसार‘ सत्र में अनामिका और संजीव पालीवाल के साथ नीलिमा डालमिया आधार की बातचीत भी काफी रोचक थी. उत्सव का समापन ओड़िसी नृत्यांगना डोना गांगुली और उनके समूह की प्रस्तुति से हुआ.