लखनऊ: “साहित्य किसी युग का हो उसने हमेशा सपने देने के साथ प्रेरित करने का काम किया है. भारत का भविष्य हमारी साहित्य रूपी उस संपूर्ण संपदा में छिपा हुआ है, जिसको हम लोग भुलाते जा रहे हैं.” साहित्यकार सुरेश ऋतुपर्ण ने दैनिक जागरण संवादी में ‘भारत का भविष्य और साहित्य’ विषय पर हुई चर्चा में ये बातें कहीं. उन्होंने कहा कि साहित्य कोई ज्योतिषाचार्य नहीं है, लेकिन वह त्रिकालदर्शी होता है. वह किसी का भविष्य नहीं लिख सकता. लेकिन, भविष्य के लिए सपने और प्रेरणा देता है. साहित्य व्यक्ति से लेकर राष्ट्र तक के भविष्य की चिंता करता है. भारतेंदु नाट्य अकादमी सभागार में हुए संवाद के दौरान उन्होंने न केवल साहित्य के महत्त्व को रेखांकित किया, बल्कि इसे लेकर अपनी चिंता भी व्यक्त की.  दैनिक जागरण वाराणसी के संपादक भारतीय बसंत कुमार से संवाद के दौरान सुरेश ऋतुपर्ण ने कहा कि हमारे साहित्यकारों ने हमें जो सपने दिए या जो बातें कहीं, क्या आज वो सिद्ध हो रही हैं. यह एक संकल्पना है कि भविष्य कुछ होता है. अगर कुछ होता है, तो वह वर्तमान होता है. भारतेंदु ने अपने साहित्य के माध्यम से जो बातें कहीं, क्या वह हमारा भविष्य निर्माण करने वाली नहीं थीं? वस्तुत: भारत में आधुनिकता की बात करने वाले प्रथम साहित्यकार भारतेंदु ही थे.

ऋतुपर्ण ने कहा कि भक्तिकालीन परंपरा ने सबके सामने तर्क की दुनिया खोली, विचारों की दुनिया खोली. चेतना को लाने का काम किया. उनका साहित्य हमारे भविष्य का मार्ग प्रशस्त करने वाला था. उन्होंने छायावादी साहित्य की बात करते हुए जयशंकर प्रसाद का उदाहरण दिया और बताया कि चाणक्य और चन्द्रगुप्त ने भी हमें सपना दिया, मार्ग दिखाया. साहित्यकार पवन अग्रवाल ने कहा कि अकादमिक क्षेत्र में भाषा के सरलीकरण और कठिन शब्दों की प्रासंगिकता के संकट पर बात की. उन्होंने कहा कि भाषा निरंतर प्रभावशील होती है. ऐसा न हुआ तो भाषा अर्काइव हो जाएगी. जिसमें ग्राह्यता नहीं होगी, वह समाप्त हो जाएगा. समय, देश, काल के साथ साहित्य की भी गति बदलती है. तकनीक ने भाषा को परिवर्तित किया. बाजार ने भी भाषा में बदलाव किया. साहित्यकार विद्या विंदु सिंह ने कहा कि भारत का भविष्य भाषाओं और साहित्य से जुड़ा है. भविष्य की सबसे ज्यादा चिंता साहित्य करता है. लोक भाषाएं भी हिंदी की शक्ति हैं. लोक भाषाओं को हिंदी से अलग कर उनके अलग अस्तित्व की मांग की जा रही है, वह उचित नहीं हैं.