वाराणसी: “काशी में लक्खा मेला के तहत होने वाला भरत मिलाप भारत की सनातन संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है. पिछली करीब पांच सदियों से चली आ रही इस प्रस्तुति ने एक बार फिर प्रभु श्री राम के भक्तों को भावविभोर कर दिया. काशी के सांसद होने के नाते मुझे इस परंपरा को लेकर विशेष गर्व की अनुभूति हो रही है.” प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सोशल मीडिया एक्स पर यह पोस्ट लिखीतो गूगल पर इसके बारे में जानने वालों का तांता लग गया. लोगों की जिज्ञासा थी यह लक्खा मेला है क्यादरअसल वाराणसी की नाटी इमली में सबसे कम समय के लिए लगने वाला यह दुनिया का सबसे बड़ा मेला है. पिछले 480 सालों से इस परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है. यहां हर वर्ष ‘भरत-मिलाप‘ देखने के लिए लाख से अधिक राम भक्त और दर्शक आते हैंइसीलिए इसका नाम ‘लक्खा मेला‘ पड़ा. चित्रकूट रामलीला समिति जो इस मेले की संचालक हैके व्यवस्थापक पंडित मुकुंद उपाध्याय के मुताबिक गोस्वामी तुलसीदास ने जब रामचरितमानस को काशी के घाटों पर लिखातो जनमानस में उसके प्रचार-प्रसार के लिए कलाकारों को इकठ्ठा कर लीला भी शुरू की थी. उनके मित्र मेघा भगत जो विशेश्वरगंज स्थित फुटे हनुमान मंदिर के रहने वाले थेने इस काम में उनकी मदद की थी. लेकिन संत तुलसीदास के शरीर त्यागने के बाद मेघा भगत काफी विचलित हो उठे. कहते हैं कि उन्हें स्वप्न में तुलसीदास जी के दर्शन हुए और उन्हीं की प्रेरणा से इस ऐतिहासिक भरत मिलाप का आयोजन दशहरे के ठीक अगले दिन होने लगा. मान्यता है कि 479 साल पुरानी काशी की इस लीला में भगवान राम स्वयं धरती पर अवतरित होते हैं. मेघा भगत ने इसी चबूतरे पर भगवान राम के दर्शन किए थे.

नाटी इमली ‘भरत मिलाप‘ में लंका विजय के बाद भगवान राममाता सीता व लक्ष्मण के साथ पुष्पक विमान से अयोध्या लौटते हैं. इस भरत मिलाप में पांच हजार किलो वजनी धातु निर्मित पुष्पक विमान पर सवार होकर एक ओर भगवान राममाता सीताभाई लक्ष्मण के साथ पहुंचते हैं. फिर वे विमान से उतरकर धरती पर दंडवत होते हैंतभी भरत और शत्रुघ्न तेजी से दौड़ते हैं. परंपरा के मुताबिक सफेद धोतीसाफालंबी बनियान व आंखों में सुरमा लगाए यादव-बंधु इस पुष्पक विमान को उठाते हैं. साथ में काशी राज परिवार भी बग्घी से चलता है. इस दौरान सड़क के दोनों तरफछतों पर और नाटी इमली मैदान में लाखों की भीड़ उमड़ती है. लोग ‘जय सियाराम‘ का उद्घोष करते रहते हैं. मानस मंडली की ओर से ‘भरत मिलाप‘ की चौपाई ‘परे भूमि नहिं उठत उठाएबर करि कृपासिंधु उर लाए‘ का पाठ चलता रहता है. इस मार्मिक दृश्य को देखने के लिए शहर ही नहीं अपितु पूरा देश उमड़ता है. शाम को लगभग चार बजकर चालीस मिनट पर जैसे ही सूर्य अस्ताचलगामी होते हैंउनकी किरणें भरत मिलाप मैदान के एक निश्चित स्थान पर पड़ती हैं. मान्यता है कि पिछली पांच सदियों से मौसम चाहे जैसा भी हो उस स्थान पर सूर्य की किरणें एक विशेष समय पर पड़ती ही हैं. लगभग पांच मिनट के लिए कोलाहल थम सा जाता है. जैसे ही चारों भाइयों का मिलन होता हैपूरे मैदान में जयकारा गूंज उठता है. हाथी पर सवार महाराज बनारस लीला स्थल पर देव स्वरूपों को सोने की गिन्नी उपहार में देते हैं. आयोजकों के अनुसार पिछले 227 सालों से काशी नरेश भी शाही-अंदाज में इस लीला में शामिल होते हैं. काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह वर्ष 1796 में पहली बार इस लीला में शामिल हुए थे. तब से उनकी पांच पीढ़ियां इस परंपरा का निर्वहन करती चली आ रही हैं.