नई दिल्ली: स्थानीय इंडिया हैबिटेट सेंटर में आयोजित भारतीय भाषाओं के तीन दिवसीय जलसे ‘समन्वय’ में ‘आदिवासियत: पहचान और साहित्य’ विषय पर परिचर्चा हुई. इस दौरान जोराम यालाम नाबाम, अनुज लुगुन, पार्वती तिर्की, राही डूमरचीर बतौर वक्ता मौजूद रहे. सत्र का संचालन राही सोरेन ने किया. इस मौके पर अनुज लुगुन ने आदिवासियत क्या है, इस सवाल का जवाब देते हुए कहा कि मेरी समझ में आदिवासियत परम्पराओं के सांस्कृतिक वर्चस्व, हिंसा और सांप्रदायिकता के विरुद्ध एक दर्शन है. यह इतिहास में दर्ज दुनियाभर में हिंसा की घटनाओं का एक समुचित प्रतिरोध है. वहीं जोराम यालाम नाबाम ने कहा कि मेरे अनुसार आदिवासियत वह परम्परा है जो प्रकृति और हमारे पूर्वजों की संस्कृति से मिलकर बनती है. उन्होंने कहा, ‘हम पूरी पृथ्वी को अपना परिवार मानते हैं इसलिए हमारी भाषा में ना कोई बड़ा है, ना कोई छोटा है. हमारे आदिवासी समाज में जानवरों और इंसानों के नाम में कोई फ़र्क़ नहीं होता. हम जिन नामों से जानवरों को पुकारते हैं वही नाम इंसानों के भी होते हैं.’ उन्होंने कहा, ‘हम कल्पना करते हैं कि जब हम मर जाते हैं तो हमारी आत्मा हमारे पूर्वजों के पास चली जाती है. जब सुख-दुख की हर घड़ी में अपने पूर्वजों को याद करते हैं और वे हमारी मदद भी करते हैं. आदिवासियत को हम सिद्धान्तों में नहीं बल्कि अपने असल जीवन में जीते हैं और यही हमारे जीवन को अनुशासित रखती है.’
पार्वती तिर्की ने कहा, ‘हमारे पुरखों ने अपने आसपास की पारिस्थिकी से एक विश्वास कायम किया है. जब हमारे पुरखे बाजार में जाने लगे तो इससे ऐसी भाषा विकसित हुई जिससे हम दूसरे समुदायों से संवाद कर पाते हैं. इस संवाद के लिए उन्होंने जो संघर्ष किया वह भी आदिवासियत है.’ हिन्दी साहित्य की वर्तमान दुनिया में आदिवासी साहित्य की उपस्थिति पर बोलते हुए राही डूमरचीर ने कहा कि आदिवासी अर्थात इस धरती पर जो सबसे पुराना है उस पर हिन्दी में अब नए सिरे से विचार हो रहा है. उन्होंने कहा, ‘आदिवासी समुदाय की पहचान के लिए जो पैमाने तय किए गए हैं उनमें से एक उनका संकोची और पिछड़ा होना भी है. लेकिन आदिवासी लोग जिस तरह से अपने दैनिक जीवन में गायन और नृत्य के जरिए खुद को अभिव्यक्त करते हैं, उससे यह बात बिलकुल बेमानी हो जाती है. आगे उन्होंने कहा, ‘आदिवासियत एक आदिवासी विश्वदृष्टि है जिसमें तीन बातें बहुत महत्वपूर्ण है- सामूहिकता, सहभागिता और सहअस्तित्व. इस सहअस्तित्व में केवल इंसान ही नहीं बल्कि जीव-जन्तु और पेड़-पौधे भी शामिल हैं.’ इसके बाद सभी वक्ताओं ने आदिवासी साहित्य की अपनी-अपनी किताबों से कविता पाठ और अंशपाठ किया.