[अनंत विजय] गांधी की फिल्मों में कोई रुचि नहीं थी और वो फिल्मों को समाज के लिए बुरा मानते थे। इसके तात्कालिक कारण थे। गांधी जी मनोरंजन को समाज के लिए आवश्यक मानते थे लेकिन मनोरंजन को लेकर उनके अपने कुछ मानक थे। उनका मानना था कि मनोरंजन ऐसा हो जो बेहतर समाजिक मूल्यों को स्थापित करे। फिल्म देखनेवाले में अच्छे संस्कार का बीज डाले या उसके अंदर के अच्छे संस्कार को मजबूत करे। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान देश की जनता खासकर युवाओं को संगठित करने और उनको भटकने नहीं देने के लिए गांधी प्रतिबद्ध थे। ये वही गांधी हैं जिनकी लंदन में रहने के दौरान संगीत में रुचि जगी थी। मशहूर अमेरिकी पत्रकार जोसेफ लेलीविल्ड ने अपनी पुस्तक ‘ग्रेट सोल, महात्मा गांधी एंड हिज स्ट्रगल विद इंडिया’ में इस बात को रेखांकित भी किया है कि लंदन में गांधी वायलिन बजाना भी सीखने जाते थे। इस बात का उल्लेख भी मिलता है कि गांधी ने पश्चिमी नृत्य सीखने की भी कोशिश की थी। वो क्लबों में जाकर डांस भी किया करते थे। दरअसल जब गांधी भारत लौटे तो यहां की फिल्मों के बारे में उनकी राय पोस्टरों को देखकर या फिल्मों के बारे में लोगों से सुनकर बन रही थी। ये वही दौर भी था जब भारतीय मूक फिल्मों में पौराणिक कहानियों पर बन रही फिल्मों से इतर भी फिल्में बनने लगी थीं। सी ग्रेड अमेरिकी फिल्मों का प्रदर्शन भी शुरू हो गया था जिसमें यौन संबंधों और नग्नता का चित्रण होता था। भारतीय दर्शकों के लिए यह एक अलग ही दुनिया थी जहां स्त्री देह को खुलेपन के साथ दिखाया जाने लगा था। इसका प्रभाव समाज पर पड़ने लगा था। उसी दौर में 1925 में डी एन संपत ने मूक फिल्म ‘सती अनुसूइया’ बनाई तो उसमें अभिनेत्री सकीना बाई ने बगैर कपड़ों के एक सीन किया था। इस तरह की बातें गांधी तक पहुंचती थी और फिल्मों को लेकर उनकी राय नकारात्मक होती जाती थी।
कहा जाता है कि महात्मा गांधी ने अपने जीवन काल में सिर्फ एक ही फिल्म, रामराज्य, देखी थी जिसके बाद भी उनकी राय बदल नहीं सकी। इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि गांधी ने फिल्मकार विजय भट्ट को बेहद संक्षिप्त मुलाकात में गुजरात के प्रख्यात कवि नरसी मेहता पर फिल्म बनाने के लिए प्रेरित किया था। अपनी किताब ‘महात्मा गांधी और सिने संसार’ में इकबाल रिजवी ने लिखा है कि ‘फिल्मकार विजय भट्ट गांधी के बड़े प्रशंसक थे। गांधी जी एक बार वलसाड प्रवास पर थे तो विजय भट्ट उनसे मिलने पहुंचे। सुबह की सैर की समय गांधी से उनकी बेहद संक्षिप्त भेंट हुई। गांधी ने उनसे पूछा कि आप क्या करते हैं? विजय भट्ट ने कहा कि वो फिल्मकार हैं। गांधी ने फिर एक सवाल दागा ‘क्या कभी आपने नरसी मेहता पर फिल्म बनाने के बारे में सोचा है?‘ विजय भट्ट ने उत्तर दिया कि वो फिल्म बनाने की कोशिश करेंगे। दो सवालों की इस बेहद संक्षिप्त मुलाकात के बाद ही विजय भट्ट ने फिल्म ‘नरसी भगत’ का निर्माण किया था। इस फिल्म में ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए’ भजन भी शामिल किया गया था। पर जब 1940 में ये फिल्म रिलीज हुई तो इसको भी गांधी अपनी राजनीतिक व्यस्तता की वजह से देख नहीं सके।
गांधी भले ही फिल्मों को उचित माध्यम नहीं मानते थे लेकिन स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में कई नेता थे जो फिल्मों को समाज को बदलने का एक प्रभावी माध्यम मानते थे। सरदार पटेल तो किशोर साहू की फिल्म ‘वीर कुणाल’ के प्रीमियर के मौके पर मुंबई के नॉवल्टी थिएटर में पहुंचे भी थे। ये आजादी से दो साल पहले की बात है। फिल्म शुरू होने के पहले उन्होंने छोटा सा भाषण भी दिया था। उस भाषण का सार ये था कि कांग्रेस कला और फिल्मों से विमुख नहीं है। उन्होंने तब जोर देकर कहा था कि अगर बरतानिया हुकूमत देश में विदेशी पूंजी से स्टूडियो खोलेगी तो कांग्रेस उसका विरोध करेगी और वो खुद उस विरोध का नेतृत्व करेंगे। इसी तरह से जब 1945 में पृथ्वीराज कपूर और शोभना समर्थ अभिनीत फिल्म ‘वीर अर्जुन’ रिलीज हुई थी तो उसको देखने डॉ राजेन्द्र प्रसाद और श्यामा प्रसाद मुखर्जी पहुंचे थे। कहना ना होगा कि गांधी भले ही मनोरंजन के इस माध्यम फिल्म को पसंद नहीं करते थे लेकिन उन्होंने कभी भी इसकी राह में बाधा बनने की कोशिश नहीं की, बल्कि गांधी और उनके सिद्धांतों ने हिंदी फिल्मों को गहरे तक प्रभावित किया।
हिंदी फिल्मों को दो थीम ने बहुत गहरे तक प्रभावित किया है। पहली थीम है राम कथा और दूसरी थीम है गांधी का व्यक्तित्व और उनके सिद्धांत। 1948 में बनी फिल्म ‘शहीद’ से लेकर 2006 में बनी फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ तक पर अगर सूक्षम्ता से नजर डालते हैं तो ऐसी सैकड़ों फिल्में रेखांकित की जा सकती हैं जिसमें किसी ना किसी रूप में गांधी उपस्थित हैं। गांधी का जो विराट व्यक्तित्व है और उनके सिद्धांतों की जो वैश्विक व्याप्ति है, हिंदी फिल्में उनके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाई हैं।