नई दिल्लीः 'भारतीय काव्यशास्त्र- एक विहंगम दृष्टि' वाणी प्रकाशन शिक्षा शृंखला के तहत आठवां व्याख्यान था. इस अवसर पर संस्कृत के विद्वान, वरिष्ठ आलोचक और चिन्तक प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी ने भारतीय काव्यशास्त्र की समृद्ध परम्परा का विवेचन करते हुए कहा कि भारतीय काव्य चिन्तन परम्परा भारतीय जीवन से बहुत गहरे जुड़ी हुई है. काव्य तथा कलाएं हमें संस्कारित करती हैं और चेतना हमें सम्पन्न बनाती है. काव्य चिन्तन का त्रिभुज कविता, कवि और सहृदय से मिलकर बनता है. भारतीय काव्य-शास्त्र के प्रस्थान बिन्दु पर बात करते हुए राधावल्लभ त्रिपाठी ने कहा कि भारतीय काव्यशास्त्र के प्रमुख छह सिद्धान्त हैं, जो आपस में एक-दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं. सबसे प्राचीनतम सिद्धान्त के रूप में उन्होंने अलंकार सिद्धान्त की और बात की और रीति, वक्रोक्ति, रस, ध्वनि पर विशद चर्चा की.
प्रोफेसर राधावल्लभ त्रिपाठी ने रस, ध्वनि सिद्धान्त को सर्वोपरि सिद्धान्त और चिन्तन को उपनिवेशवादी दृष्टि बताया. उनका मत था कि असल में रस, ध्वनि, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति की चारुता को एक-दूसरे के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए. उन्होंने चुनौती के अंदाज में कहा कि भारतीय काव्य चिन्तन की परम्परा में बहुत कुछ ऐसा है, जो उत्तर आधुनिकता के दौर में साहित्य की जो वैश्विक चुनौतियाँ हैं, उनका मुक़ाबला कर सकता है. त्रिपाठी ने यह बताया कि हिन्दी समीक्षा की काव्य चिन्तन की परम्परा में आचार्य रामचंद्र शुक्ल और मुक्तिबोध ने कई मौलिक स्थापना दी है. कुन्तक के सिद्धान्त में आधुनिक संरचनावादी काव्यशास्त्र की मीमांसा की जा सकती. इस तरह भारतीय काव्यशास्त्र का यह चिन्तन रूप कविता की उदात्त चेतना को सुन्दर और गहरा बनाता है. याद रहे कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ प्रभाकर सिंह के सहयोग से आयोजित इस खास तरह का अकादमिक व्याख्यानमाला का उद्देश्य 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' पर विद्वानों से चर्चा कराना है.