नई दिल्लीः हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नई दृष्टि विचारधारा और विमर्श व्याख्यानमाला का चौथा व्याख्यान चर्चित युवा आलोचक वैभव सिंह ने दिया. शिक्षा शृंखला के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन इसका आयोजन कर रहा है. इस बार व्याख्यान का विषय था 'मार्क्सवाद और हिंदी साहित्य'. वैभव सिंह ने अपनी बात की शुरुआत मार्क्सवाद की व्याप्ति से की. उनका कहना था कि बीसवीं सदी के दूसरे-तीसरे दशक में हिंदी में मार्क्सवाद का आगमन हुआ. मार्क्सवाद ने साहित्य पर दो रूपों में असर डाला. एक ओर साहित्यिक संगठन में इसका स्वरूप दिखाई देता है, दूसरे रचनाकारों और रचनाओं में यह सृजनात्मक रूप से दर्ज होता है. वैभव के मुताबिक इसका दूसरा रूप ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है. यों मार्क्सवाद को जिन साहित्यकारों ने जीवन संदर्भों के साथ जोड़कर और विकसित दृष्टि के साथ ग्रहण किया उनकी रचनाओं में मार्क्सवाद का सार्थक रूप दिखाई देता है. सिंह ने दावा किया कि हिंदी साहित्य में मार्क्सवाद की उपस्थिति कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना सभी जगह दिखाई देती है. वह साहित्यकार जो जीवन की गहरी संवेदना के साथ जुड़कर मार्क्सवाद से रिश्ता कायम करता है वह मार्क्सवाद को बेहतर साहित्यिक रूप में रूपांतरित कर पाता है.
प्रेमचंद, रांगेय राघव, राहुल सांकृत्यायन, यशपाल, मुक्तिबोध, पंडित रामविलास शर्मा का जिक्र करते हुए वैभव सिंह का कहना था कि हिंदी के इन रचनाकारों के ऊपर मार्क्सवाद का असर सबसे अधिक है. यों प्रगतिशील कविता और साहित्य में तो मार्क्सवाद है ही लेकिन मार्क्सवाद अपनी जन पक्षधर छवि के साथ प्रयोगवाद, नई कविता और समकालीन कविता में भी दिखाई देता है. यहां तक कि अस्मितामूलक विमर्श में जो जनपक्ष की आवाज है उसका मार्क्सवाद से गहरा रिश्ता है. साहित्य में मार्क्सवाद एक विचारधारा की तरह विकसित हुआ है. समय के साथ परिवर्तित यथार्थ की छवियों के साथ मार्क्सवाद की छवि में भी परिवर्तन आया है. हिंदी में बहुत से साहित्यकारों ने अपने स्थानीय परिवेश के साथ मार्क्सवाद से अपना रिश्ता कायम किया. यहाँ तक कि उत्तर आधुनिकता जैसे वैचारिक मूल्य में भी मार्क्सवाद की उपस्थिति को देखा जा सकता है. मार्क्सवाद एक साथ स्थानीय और सार्वभौमिक अथवा वैश्विक दोनों के महत्त्व को विकसित करने की बात करता है. साहित्य में उत्तर आधुनिकता को लेकर जो बौद्धिक घोटाला चल रहा है उसके समानान्तर मार्क्सवाद के साहित्यिक टूल्स हमारे साहित्य और समाज को अधिक प्रासंगिक और जन पक्षधर बनाते हैं. मार्क्सवाद के साहित्यालोचन को टेरी ईगल्टन, लुकास और फ्रेडरिक जेमसन जैसे विचारकों ने अधिक ज़मीनी रूप में विकसित किया है. यों साहित्य में मार्क्सवाद की अति से भी हमें बचना चाहिए.