भारतीय साहित्य की दिक्कत यह है कि हम अपने तमाम बड़े लेखकों के जन्मदिन के घनचक्कर में फंसे हैं. चाहे वह रबींद्रनाथ ठाकुर हों, या देवकीनंदन खत्री. कोई एक पुख्ता तिथि की जगह जिसकी जिस दो – तीन तिथियों पर आस्था हो, उस दिन मनाता है. इस तरह से हिंदी में तिलिस्मी उपन्यासों के जनक देवकीनंदन खत्री की आज जयंती है. 29 जून, 1861 बिहार के मुजफ़्फ़रपुर में उनका जन्म हुआ. हालांकि विकीपीडिया और कुछ विद्वान उनकी जन्मतिथि 18 जून ,1861 को समस्तीपुर में बताते हैं. बहरहाल देवकीनंदन खत्री ने बनारस में एक प्रिंटिंग प्रेस की लगाया और 1883 में हिंदी मासिक पत्र 'सुदर्शन' निकालने लगे. पर बात और कामधाम ज्यादा आगे नहीं बढ़ा, तो महाराज बनारस से चकिया और नौगढ़ के जंगलों का ठेका ले लिया. ठेकेदारी से कमाई के साथ-साथ बीहड़ जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों के खंडहरों की खाक छानते रहे.
बताते हैं कि जब देवकीनंदन खत्री से जंगलों के ठेके वापस ले लिए गये तब उन्होंने इन्हीं जंगलों, पहाड़ियों और प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों की पृष्ठभूमि में अपनी तिलिस्म तथा ऐय्यारी के कारनामों की कल्पना को मिश्रित कर 'चंद्रकान्ता' उपन्यास की रचना की. बाद में 'चंद्रकांता', 'चंद्रकांता संतति', 'भूतनाथ' जैसे ऐय्यारी और तिलस्मी उपन्यासों से वह हिंदी साहित्य में अमर हो गए. खास बात यह कि उनके ये सभी उपन्यास बिलकुल मौलिक और स्वतंत्र हैं. यह बहुत चर्चित बात है कि 19वीं सदी में न केवल लाखों लोगों ने उनके उपन्यास पढ़े और हज़ारों आदमियों ने केवल उनके उपन्यास पढ़ने के लिए हिंदी सीखी. यही कारण है वृंदावनलाल वर्मा ने उन्हें हिंदी का 'शिराज़ी' कहा था. खास बात यह कि देवकीनंदन खत्री की कृतियों में मनोरंजन के साथ इतनी अधिक कौतूहल और रोचक सामग्री है कि उनके ऐय्यारों के आगे हैरी पोटर के कारनामे थोथे लगते हैं.