ओम प्रकाश आदित्य का नाम लेते ही हिंदी व्यंग्य कविता की उस समृद्ध परंपरा का भान होता है, जिसका लक्ष्य हमेशा सामाजिक परिष्कार रहा. उनके कटाक्ष हमेशा समय से परे रहे. 8 जून, 2009 को जब सड़क हादसे में लाड़सिंह गुर्जर और नीरज पुरी के साथ उनकी मौत हुई तो उसे मंचीय हास्य कविता की एक बड़ी क्षति के रूप में देखा गया. अफसोस की उनकी पुण्यतिथि पर कोरोना के चलते कवि समूह कोई आयोजन नहीं कर पाया.
समाज के चरित्र को ओम प्रकाश आदित्य ने अपनी हास्य कविताओं में कितना बख़ूबी बयान किया है, उसकी बानगी इस कविता में देखें.
इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूं, गधे ही गधे हैं
गधे हंस रहे, आदमी रो रहा है
हिन्दोस्तां में ये क्या हो रहा है
जवानी का आलम गधों के लिये है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिये है
ये दिल्ली, ये पालम गधों के लिये है
ये संसार सालम गधों के लिये है
पिलाए जा साकी, पिलाए जा डट के
तू विहस्की के मटके पै मटके पै मटके
मैं दुनियां को अब भूलना चाहता हूं
गधों की तरह झूमना चाहता हूं
घोड़ों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो.
यहां आदमी की कहां कब बनी है
ये दुनियां गधों के लिये ही बनी है.
जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है.
जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है.
मैं क्या बक गया हूं, ये क्या कह गया हूं
नशे की पिनक में कहां बह गया हूं.
मुझे माफ करना मैं भटका हुआ था
वो ठर्रा था, भीतर जो अटका हुआ था.