मुझे विश्वास है
यह पृथ्वी रहेगी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी हड्डियों में
यह रहेगी जैसे पेड़ के तने में
रहते हैं दीमक
जैसे दाने में रह लेता है घुन
यह रहेगी प्रलय के बाद भी मेरे अन्दर
यदि और कहीं नहीं तो मेरी ज़बान
और मेरी नश्वरता में
यह रहेगी….केदारनाथ सिंह की कविता 'यह पृथ्वी रहेगी' की ये शुरुआती पंक्तियां हैं. आज उनकी पुण्यतिथि है, और दुनिया में जिस तरह कोरोना वायरस को लेकर अफरातफरी है, उसमें उम्मीद की लौ जलाती है. केदारनाथ सिंह का जन्म 1934 में उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के चकिया गांव में हुआ था. उन्होंने काशी हिंदू विश्वविद्यालय से 1956 में हिंदी में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की और 1964 में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल की. फिर अकादमिक कार्य में जुट गए. कई कालेजों में पढ़ाया और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए.
केदारनाथ सिंह की भाषा सरस थी, और भाव स्पष्ट. वह प्रकृति और मानव को केंद्र बनाकर रच रहे थे. हालांकि उन्होंने कविता के साथ गद्य भी खूब लिखा और कई पुस्तकें भी आयीं, पर असली पहचान कवि की ही रही. समकालीन कविता के प्रमुख हस्ताक्षर के रूप में उन्होंने बदलते दौर को बहुत करीने से पकड़ा और गांव और शहर के द्वंद्व के बीच मानवीय संवेदना को बचाने की बात की. उनकी प्रमुख कृतियों में अभी बिल्कुल अभी, ज़मीन पक रही है, यहां से देखो, अकाल में सारस, उत्तर कबीर और अन्य कविताएं, तालस्ताय और साइकिल शामिल है. लंबी कविता 'बाघ' प्रमुख कृति कही जाती है. भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादमी, व्यास सम्मान  सहित दर्जनों पुरस्कारों से सम्मानित कवि केदारनाथ सिंह को नमन.