अजमेरः महात्मा गांधी की डेढ़ सौवें जयंती वर्ष में चल रहे आयोजनों के तहत स्थानीय पृथ्वीराज चौहान राजकीय महाविद्यालय के ऐतिहासिक महाराणा प्रताप सभागार में मुख्य वक्ता के तौर पर गांधीवादी पत्रकार, विचारक संत समीर ने अहिंसा, स्वदेशी और मशीनीकरण पर महात्मा गान्धी के विचारों पर अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि गांधीजी ने कभी कहा था कि भारत को हर हाल में मारने की शक्ति हासिल करनी होगी..अहिंसा वीरों का भूषण है कायरों का नहीं. उनका पूरा बयान तमाम लोगों के लिए हतप्रभ कर देने वाला होगा. मशीनीकरण, औद्योगीकरण पर भी बात ऐसी ही है. उस सन्दर्भ का मर्म समझिए, जब गांधी ने कहा, मैं चरख़े में आग लगा दूँ. असल में गांधी की अहिंसा और उनके मशीनीकरण को हम अक्सर एकतरफ़ा तरीक़े से समझने की कोशिश करते हैं, इसलिए कुछ प्रचलित उद्धरणों में फंसकर रह जाते हैं. गांधी की अहिंसा को समझने के लिए देश भर के विभिन्न आश्रमों में उनकी मौजूदगी में घटी घटनाओं और उस वक़्त उनके सुझाए समाधानों को समझना काम का हो सकता है. गांधी का चरख़ा भी सामान्य चरख़ा नहीं है, उसकी प्रतीकात्मकता गहरी है.
संत समीर ने कहा, गांधी ने सन् 1919 में 'यंग इण्डिया' में लिखा, "देश में मिल उद्योग और करघा, दोनों के लिए गुंजाइश है। इसलिए चरख़ों और करघों के साथ मिलों की संख्या भी बढ़ने दीजिए…सवाल मिलों या मशीनों के विरोध करने का नहीं है. सवाल यह है कि हमारे देश के लिए सबसे अधिक उपयुक्त क्या है? रस्किन के शब्दों में मैं पूछता हूं- क्या ये मशीनें ऐसी होंगी कि एक मिनट में लाखों व्यक्तियों को ध्वस्त कर दें या ऐसी होंगी कि बञ्जर भूमि को कृषि-योग्य उपजाऊ बना दें?'' इस तरह गांधी की तकनीकी दृष्टि चरख़े को तकनीक की ऊंचाई के चरम पर ले जाने को व्यग्र है. उनकी तकनीकी समझ में न चाँद और मंगल पर जाना समस्या है और न ही बड़ी मशीन बनाना. शर्त इतनी-सी है कि मशीन आमजन की ज़िन्दगी में सुकून पैदा करने वाली होनी चाहिए और ऐसी हो कि लोगों को बेकार न बनाए या शोषण का माध्यम न बने, बल्कि शोषण की स्थितियों को समाप्त करने वाली हो. गांधी जब छोटी मशीनों और विकेन्द्रित व्यवस्था की बात करते हैं, तो यह भी देखना चाहिए कि वे किन स्थितियों के लिए बड़ी मशीनों और केन्द्रित उपक्रमों की ज़रूरत बताते हैं.