मेरे जीवन की क्षुधा, नहीं मिटेगी जब तक
मत आना हे मृत्यु, कभी तुम मुझ तक…
'भारत कोकिला' सरोजिनी नायडू के कविता की यह पंक्तियां हैं. देश की इस महान स्वतंत्रता सेनानी के साहित्यिक जीवन के बारे में अब उतनी चर्चा नहीं होतीं, पर उनकी लेखकीय मेधा का लोहा किशोरवय में ही बड़े- बड़े लेखकों ने मान लिया था. वह अंग्रेज़ी, हिंदी, बंगला और गुजराती में दक्ष थीं. हालांकि उनका शुरुआती लेखन अंग्रेजी में था पर कालांतर में अपनी मातृभाषा से उनका लगाव जगजाहिर है. लगभग 13 वर्ष की आयु में सरोजिनी ने 1300 पदों की 'लेडी ऑफ़ दी लेक' यानी 'झील की रानी' नामक लंबी कविता और लगभग 2000 पंक्तियों का एक नाटक लिखकर अंग्रेज़ी भाषा पर अपना अधिकार सिद्ध कर दिया. अपनी शिक्षा के दौरान वह इंग्लैंड में केवल दो साल तक ही रहीं, किंतु वहां के प्रतिष्ठित साहित्यकारों और मित्रों पर अपनी रचना प्रतिभा की छाप छोड़ दी. उनके मित्र और प्रशंसकों में 'एडमंड गॉस' और 'आर्थर सिमन्स' जैसे लोग शामिल थे. उन्होंने किशोर सरोजिनी को अपनी कविताओं में गम्भीरता लाने की राय दी.
सरोजनी ने इस बात को बेहद गंभीरता से लिया. आजादी के आंदोलन के साथ वह लगभग बीस वर्ष तक कविताएं और लेखन कार्य करती रहीं. मातृभूमि को समर्पित उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियां यों हैंः
'श्रम करते हैं हम
कि समुद्र हो तुम्हारी जागृति का क्षण
हो चुका जागरण
अब देखो, निकला दिन कितना उज्ज्वल.'
सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फ़रवरी, सन् 1879 को हैदराबाद में हुआ था. पिता अघोरनाथ चट्टोपाध्याय और माता वरदा सुन्दरी की आठ संतानों में वह सबसे बड़ी थीं. अघोरनाथ एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे. वह स्वयं भी कविता भी लिखते थे. माता वरदा सुन्दरी भी कवयित्री थीं. अपने कवि भाई हरीन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय की तरह सरोजिनी को भी अपने माता-पिता से काव्यलेखन की प्रतिभा प्राप्त हुई थी. उनके तीन कविता-संग्रह प्रकाशित हुए. उनके कविता संग्रह 'द गोल्डन थ्रेशहोल्ड', 'बर्ड ऑफ़ टाइम' और 'ब्रोकन विंग' ने उन्हें एक प्रसिद्ध कवयित्री बनवा दिया. एक दौर में सरोजिनी नायडू भारतीय और अंग्रेज़ी साहित्य जगत की स्थापित कवयित्री के तौर पर स्थापित हो चुकी थीं, पर 'भारत कोकिला' को देश की आजादी पुकार रही थीं. उन्होंने अपने को कवि मानने की बजाय हमेशा राष्ट्रभक्त ही माना.