नई दिल्ली: इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने ‘रेज आफ विजडम सोसाइटी‘ के सहयोग से और भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के साथ 8वें अंतर्राष्ट्रीय प्राचीन कला महोत्सव और संगोष्ठी का आयोजन किया. इस कार्यक्रम में ‘कला , धर्म और उपचार‘ पर एक सम्मेलन के साथ-साथ ‘दृश्य कलाओं में आध्यात्मिक, प्रतीकात्मक और उपचारात्मक विषय‘ शीर्षक से एक प्रदर्शनी भी आयोजित की गई. ‘धर्म, चेतना और आध्यात्मिकता और व्यक्तिगत और सामाजिक उपचार के लिए इसकी अभिव्यक्ति‘ पर केंद्रित व्याख्यानों और चर्चाओं के साथ, सम्मेलन का उद्देश्य कला के माध्यम से आध्यात्मिकता के कालातीत सिद्धांतों को व्यक्त करना था. सम्मेलन में ‘कला और संघर्ष समाधान‘, ‘बाउल दर्शन में उपचार‘, ‘ओडिसी और इसके सार्वभौमिक सिद्धांत‘, ‘नाटक आंदोलन और चिकित्सा‘ और ‘सौंदर्य का सौंदर्यशास्त्र‘ जैसे विषयों पर व्यावहारिक चर्चाएं शामिल थीं. विद्वानों ने ‘मलय पारंपरिक मनोचिकित्सा के माध्यम से अधूरी इच्छाओं से निपटना‘, ‘भक्ति संगीत और आध्यात्मिकता‘, ‘कविता में कुंडलिनी‘, ‘भारतीय ललित कलाओं में आध्यात्मिकता‘ और ‘मणिपुरी संगीत में आध्यात्मिकता के तत्व‘ का भी पता लगाया. सामाजिक-सांस्कृतिक कला रूपों के रूप में धार्मिक अनुष्ठानों का प्रभाव, मंदिर वास्तुकला का तत्वमीमांसा और बच्चों के रंगमंच की ज्ञान-मीमांसा भी महत्त्वपूर्ण केंद्र बिंदु थे. नई दिल्ली में राष्ट्रीय संग्रहालय में भारतीय धर्म की प्रोफेसर और टैगोर नेशनल फेलो डा मधु खन्ना ने मुख्य भाषण दिया. सम्मेलन के उद्घाटन सत्र के विशिष्ट अतिथि डा सच्चिदानंद जोशी थे. डा जोशी ने ‘सनातन‘ संदर्भ में धर्म के सार पर बात की और बताया कि ‘धर्म‘ में यह शामिल है कि कोई व्यक्ति अपना जीवन कैसे जीता है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि ‘कुटुंब‘ का अर्थ परिवार से परे है और इसमें व्यक्ति का पर्यावरण, मन और पारिस्थितिकी शामिल है, जिससे ‘धर्म‘ की व्याख्या स्पष्ट और व्यापक हो जाती है. उन्होंने टिप्पणी की कि ‘धर्म‘ शब्द का एक अर्थ है, जबकि ‘धर्म‘ एक अलग समझ का प्रतिनिधित्व करता है. उन्होंने उम्मीद जताई कि सम्मेलन के विचार-विमर्श में इस बात पर गहराई से चर्चा की जाएगी कि हम स्वयं के लिए ‘धर्म‘ की व्याख्या कैसे करते हैं. डा जोशी ने चेतना पर भी बात की और भारतीय दर्शन में इसके अनूठे अर्थों पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि हम एक ही चेतना को पहचानते हैं जो दुनिया को नियंत्रित करती है, यह चेतना प्रत्येक व्यक्ति के भीतर भी मौजूद है और स्वयं के भीतर प्रकट होती है. यह स्वयं विभिन्न रूपों में व्यक्त होता है, जो इस अवधारणा को मूर्त रूप देता है कि सत्य एक है फिर भी कई तरीकों से व्यक्त किया जाता है. कला के बारे में उन्होंने कहा कि इसकी अभिव्यक्ति सत्य में निहित है और हमारे लिए यह महज मनोरंजन या सूचना-प्रसार से परे है. कला व्यक्तिगत संतुष्टि के लिए नहीं है; बल्कि यह स्वयं के भीतर दिव्य शक्ति के सार को आत्मसात करने का एक माध्यम है – एक ऐसी शक्ति जो एक साथ पूरे विश्व पर शासन करती है.
मुख्य वक्तव्य में डा मधु खन्ना ने कहा कि ‘रामायण‘ और ‘महाभारत‘ जैसे महाकाव्य हमें कला से जोड़ते हैं. उन्होंने बताया कि साहित्यिक ग्रंथ हमें कल्पना करने में मदद करते हैं और इस तरह हमें कलाओं के साथ जोड़ते हैं. ‘रामायण‘ सभी कला रूपों के बीच अंतर्संबंध का एक प्रमुख उदाहरण है, जिसमें भारत के महाकाव्यों की तरह कोई अन्य महाकाव्य इतनी महत्वपूर्ण भूमिका नहीं निभाता है. जबकि विभिन्न साहित्यिक ग्रंथ विभिन्न सांस्कृतिक परंपराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, वे तोड़फोड़ और अवज्ञा के बीच भी निरंतरता बनाए रखते हैं. उन्होंने जोर देकर कहा कि कला सच्चे आत्म की खोज है.” उन्होंने आगे बताया कि ‘रस‘, या सौंदर्य आनंद, ‘भाव‘, भावनात्मक प्रतिक्रिया के बिना मौजूद नहीं हो सकता; इसी तरह, कलात्मक भावना सौंदर्य आनंद से अविभाज्य है. संस्कृति मंत्रालय की संयुक्त सचिव अमिता साराभाई ने सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने और बढ़ावा देने मे मंत्रालय की प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हुए कहा, “यह उत्सव विशेष रूप से युवा पीढ़ी के बीच सांस्कृतिक जागरूकता को समृद्ध करने की हमारी प्रतिबद्धता का प्रतीक है.” प्रो ऋचा कंबोज ने कहा, “भारत की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत में आध्यात्मिकता का सार निहित है जो इसकी कलाओं में जान फूंकता है. प्राचीन भारतीय कला दिव्यता के मार्ग के रूप में ‘आध्यात्मिक चिंतन‘ का प्रतीक है.” डा रीला होता और उनके समूह ने महोत्सव के पहले दिन ‘अंतर यात्रा‘ प्रस्तुत की. यह योग दर्शन पर आधारित एक अनूठी नृत्य प्रस्तुति थी, जिसमें चक्रों और व्यक्तिगत परिवर्तन की अवधारणा का पता लगाया गया. नृत्य नाटिका में ओडिसी, छऊ और समकालीन बैले को शामिल किया गया, जो मूलाधार से शिखर- सहस्रार चक्र तक चेतना के उत्थान का प्रतीक है. ‘अंतर यात्रा‘ का समापन ‘मोक्ष‘ के चित्रण में हुआ, जो आनंद की अंतिम अवस्था और सार्वभौमिक चेतना का मेल है. अन्य प्रतिष्ठित वक्ताओं में मलेशिया में सूत्र फाउंडेशन के अध्यक्ष गुरु रामलीला इब्राहिम, दिल्ली विश्वविद्यालय के जानकी देवी कॉलेज की प्रो. स्वाति पाल, केएम मुंशी सेंटर ऑफ इंडोलोजी की डीन डा शशि बाला, नालंदा नृत्य कला महाविद्यालय की प्रिंसिपल डा उमा रेले, सेवानिवृत्त थिएटर एक्टिविस्ट और दयाल सिंह कालेज में प्रोफेसर प्रो आशीष घोष और कनाडा के मैकगिल विश्वविद्यालय में बिर्क्स आफ रिलीजियन प्रोफेसर अरविंद शर्मा शामिल थे. इस सम्मेलन ने व्यक्तिगत और सामाजिक परिवर्तन में कला की गहन भूमिका पर प्रकाश डालते हुए आध्यात्मिकता, कला और उपचार के अंतर्संबंध पर समृद्ध चर्चा के लिए एक मंच प्रदान किया. मानसिक और आध्यात्मिक कल्याण पर उनके प्रभाव पर जोर देने के लिए विविध सांस्कृतिक अभिव्यक्तियों को एकजुट किया. तीन दिवसीय कार्यक्रम में कला और समग्र स्वास्थ्य के बीच शाश्वत संबंध का उत्सव मनाया गया. दूसरे दिन श्रीनिवास जोशी ने गायन प्रस्तुत किया और अंतिम दिन का समापन यामिनी रेड्डी और उनके समूह द्वारा कुचिपुड़ी नृत्य प्रदर्शन के साथ हुआ.