नई दिल्ली: “जीवन में आगे बढ़ना सफलता है लेकिन जीवन की सार्थकता इस बात में निहित है कि हम दूसरों की भलाई के लिए कार्य करें. हमारे अंदर करुणा-भाव हो. हमारा आचरण नैतिक हो. असल में सार्थक जीवन ही वास्तव में सफल जीवन है.” यह बात राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने शिक्षकों को संबोधित करते हुए कही. राष्ट्रपति ने कहा कि गुरु, आचार्य और शिक्षक को हमारी परंपरा में बहुत आदर दिया जाता है. ‘गुरु’ शब्द, आध्यात्मिक ज्ञान देने वाले के लिए प्रयुक्त होता है. ‘आचार्य’ एवं ‘शिक्षक’ शब्दों का प्रयोग बौद्धिक और व्यावहारिक विद्या प्रदान करने वाले शिक्षकों के लिए होता है. आम बोलचाल में विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों को गुरुजी कहने की परंपरा रही है.  राष्ट्रपति ने कहा कि खगोल शास्त्र के प्राचीन विद्वानों ने हमारे सौर-मण्डल के सबसे बड़े ग्रह को देवगुरु बृहस्पति का नाम दिया. यह भारतीय ब्रह्मांड विज्ञान पर सामाजिक मूल्यों के प्रभाव का उदाहरण है कि सप्ताह के एक दिन को बृहस्पतिवार या गुरुवार कहा जाता है.

ओड़िशा के रायरंगपुर में श्री अरबिंदो इंटीग्रल स्कूल के अनुभवों को याद करते हुए उन्होंने कहा कि शिक्षा ही जीवन-निर्माण का सबसे प्रभावी माध्यम है. अपने जीवन के महत्वपूर्ण क्षणों में मुझे सहज ही स्कूल और शिक्षक याद आते हैं. इस वर्ष 25 जुलाई को राष्ट्रपति के मेरे कार्यकाल का दूसरा वर्ष सम्पन्न हुआ. मैंने निर्णय लिया कि उस दिन मैं राष्ट्रपति भवन परिसर में स्थित विद्यालय में बच्चों के साथ क्लास रूम में समय बिताऊंगी. बच्चों के साथ प्रकृति और पर्यावरण के विषय में बातचीत करके मुझे बहुत संतोष का अनुभव हुआ. राष्ट्रपति ने कहा कि एक शिक्षक अपने आचरण एवं विचारों से विद्यार्थियों के जीवन में अमिट छाप छोड़ सकता है. राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का एक कथन इस संदर्भ में अत्यंत प्रासंगिक है. गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि उनके शिक्षकों ने पुस्तकों की मदद से उन्हें जो सिखाया था, वह उन्हें बहुत ही कम याद रहा है. पर पुस्तकों से अलग हट कर शिक्षकों ने स्वयं जो कुछ सिखाया था, उसका स्मरण बाद तक भी बना रहा. गांधीजी के कथन का भाव यह है कि बच्चे देखकर-सुनकर बहुत सारे मूल्य सीखते हैं और अपनाते हैं. इसलिए कक्षा के अंदर और बाहर आपका आचरण उत्कृष्ट होना चाहिए.