नई दिल्ली: “सत्तर के दशक में आपातकाल लगाने के पीछे इंदिरा गांधी की सत्ता में बने रहने की चाह एक बड़ा और तात्कालिक कारण था लेकिन और भी ऐसे अनेक कारण थे जिनकी वजह से उन्होंने इस कदम को उठाया. उन कारणों को समझने के लिए हमें इतिहास में और पीछे जाने की जरूरत है.” यह बात इतिहासकार और प्रिंसटन यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर ज्ञान प्रकाश ने अपनी किताब ‘आपातकाल आख्यान: इंदिरा गांधी और लोकतंत्र की अग्निपरीक्षा’ के लोकार्पण के दौरान कही. उन्होंने कहा कि चूंकि देश में उस आपातकाल की पृष्ठभूमि बहुत पहले से ही तैयार हो रही थी जिस पर पहले हमारा ध्यान नहीं गया. यही बात देश के वर्तमान हालात पर भी लागू होती है. आज जिस तरह की स्थितियां हमारे सामने हैं वे सिर्फ कुछ बरसों में नहीं बनी है. दरअसल, इनके लिए इतिहास में पहले घट चुकी अनेक तरह की घटनाएं जिम्मेदार हैं. इस दौरान अशोक कुमार पांडेय और सीमा चिश्ती ने लेखक से बातचीत की. किताब के अनुवादक मिहिर पंड्या ने अनुवाद के अपने अनुभव साझा किए और किताब के कुछ अंशों का पाठ किया. अनुवादकीय वक्तव्य में मिहिर पंड्या ने कहा कि मुझे आधुनिक इतिहास में बीस और सत्तर के दशक में विशेष रुचि रही है. इसका कारण यह है कि इन दोनों दशकों में अनेक ऐसी घटनाएं घटित हुई जो कई चीजों को बना रही थी और बदल रही थी. उनमें से कई चीजों को हम आज भी पूरी तरह से व्याख्यायित नहीं कर पाए हैं. दूसरा, उस समय देश के नौजवान बहुत सक्रिय रूप से चीजों को बनाने और बदलने में अपनी भूमिका निभा रहे थे. इन्हीं चीजों में मेरी दिलचस्पी ने इस किताब के अनुवाद के लिए मुझे आकर्षित किया.
आपातकाल के ऐतिहासिक कारणों पर बात करते हुए ज्ञान प्रकाश ने कहा, “नेहरू के निधन के बाद का जो काल था, उस समय दुनियाभर में राजनीतिक रूप से असंतोष की एक लहर चल रही थी. क्योंकि पिछले कुछ दशकों में आजाद हुए अनेक राष्ट्रों ने लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनाकर अपने नागरिकों से बराबरी का वादा किया था. लेकिन दो-तीन दशक बीत जाने के बाद भी सामाजिक और आर्थिक असमानता उसी तरह बरकरार थी. भारत की राजनीति भी उससे अछूती नहीं रही और इसी से इंदिरा गांधी की सत्ता का संकट पैदा हुआ. व्यवस्था के प्रति इस असंतोष ने देश के युवाओं को आंदोलित किया और आजादी की लड़ाई के सिपाही ‘जेपी’ ने उन्हें नेतृत्व दिया. आखिर वह दौर लंबा नहीं चल सका लेकिन आपातकाल से हमें जो सीख लेनी चाहिए थी वो हमने नहीं ली. ज्यादातर लोगों का यही सोचना था कि इंदिरा गांधी को सत्ता से हटाते ही सारी चीजें ठीक हो जाएगी. मेरा मानना है कि इस तरह की घटनाओं को ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में देखे बगैर केवल व्यक्ति केंद्रित कर देना हमें कोई समाधान नहीं दे सकता.” आगे उन्होंने कहा कि हमारे समाज में, राजनीति में, मीडिया में और पूंजीवादी व्यवस्था में जो बदलाव हो रहे हैं उनके साथ-साथ हमें लोकतंत्र में होने वाले बदलावों को भी नज़र में रखना चाहिए. इस किताब में आपातकाल के ठीक पहले की स्थितियों और लोकतंत्र में आ रहे इन्हीं बदलावों के ऐतिहासिक संदर्भ को समझने की कोशिश की है. राजकमल प्रकाशन समूह के अध्यक्ष अशोक महेश्वरी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि आपातकाल भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में एक अप्रत्याशित घटना थी. अवांछित भी. आपातकाल की घोषणा वैधानिक प्रावधानों के जरिये ही की गयी थी. लेकिन तत्काल इसके जो प्रभाव नज़र आए, उनसे स्पष्ट हो गया कि महज तीन दशक पहले आजाद होकर, लोकतंत्र की राह पर आगे बढ़ने वाले देश के लिए यह हत्प्रभ और हताश करने वाला कदम था. दरअसल, हमारे युवा लोकतंत्र के लिए आपातकाल एक चेतावनी साबित हुआ. ज्ञान प्रकाश की किताब आपातकाल आख्यान हमारे हालिया इतिहास की इसी परिघटना की बारीक विवेचना करती है.