नई दिल्ली: 46वीं विश्व धरोहर समिति ने भारत की सांस्कृतिक विरासत श्रेणी से चराईदेव मोईदाम को यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल के रूप में नामित किया है. विश्व धरोहर समिति अपनी वार्षिक बैठक में विश्व धरोहर से संबंधित सभी मामलों के प्रबंधन और विश्व धरोहर सूची में शामिल किए जाने वाले स्थलों के संबंध में निर्णय लेती है. इस वर्ष इस बैठक में सूची में शामिल किये जाने हेतु 27 नामांकनों पर विचार किया जा रहा है, जिसमें 19 सांस्कृतिक, 4 प्राकृतिक, 2 मिश्रित स्थल और 2 सीमा-स्थल शामिल हैं. ऐसे में चराईदेव मोईदाम का इस सूची में शामिल होना गर्व की बात है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी ‘मन की बात‘ में इस विषय को साझा करने के साथ ही एक सवाल भी पूछा कि क्या आपने ‘चराईदेव मोईदाम का नाम सुना है?’ उन्होंने अपनी बात में इसके बारे में विस्तार से चर्चा की. ऐसे में हम यहां ‘चराईदेव मोईदाम‘ के बारे में जानना बेहद रोचक है. यह असम पर शासन करने वाले अहोम राजवंश के सदस्यों के नश्वर अवशेषों को दफनाने की प्रक्रिया थी. चीन से आकर ताई-अहोम राजवंश ने 12वीं से 18वीं शताब्दी ई तक ब्रह्मपुत्र नदी घाटी के विभिन्न भागों में अपनी राजधानी स्थापित की. उनमें से सबसे अधिक पवित्र स्थल चराईदेव था, जहां ताई-अहोम ने पाटकाई पर्वतमाला की तलहटी में स्थित में चौ-लुंग सिउ-का-फा के अधीन अपनी पहली राजधानी स्थापित की थी. यह पवित्र स्थल, जिसे चे-राय-दोई या चे-ताम-दोई के नाम से जाना जाता है, ऐसे अनुष्ठानों के साथ पवित्र किये गए थे जो ताई-अहोम की गहरी आध्यात्मिक मान्यताओं को दर्शाते थे. सदियों से चराईदेव ने एक टीला शवागार के रूप में अपना महत्त्व बनाए रखा है, जहां ताई-अहोम राजघरानों की दिवंगत आत्माएं परलोक में चली जाती थीं. ताई-अहोम लोगों का मानना था कि उनके राजा दिव्य थे, जिसके कारण एक अनूठी अंत्येष्टि परंपरा की स्थापना हुई: राजवंश के सदस्यों के नश्वर अवशेषों को दफनाने के लिए मोईदाम या गुंबददार टीलों का निर्माण.
चराईदेव की यह परंपरा 600 वर्षों से चली आ रही है, जिसमें विभिन्न सामग्रियों का उपयोग किया गया और समय के साथ वास्तुकला की तकनीकें विकसित होती रही. शुरुआत में लकड़ी और बाद में पत्थर और पकी हुई ईंटों का इस्तेमाल करके मोईदाम का निर्माण किया गया, यह एक सावधानीपूर्वक की जाने वाली प्रक्रिया थी जिसका विवरण चांगरुंग फुकन में दिया गया है, जो अहोमों का एक प्रामाणिक ग्रंथ है. शाही दाह संस्कार से जुड़ी रस्में बहुत भव्यता के साथ आयोजित की जाती थीं, जो ताई-अहोम समाज की पदानुक्रमिक संरचना को दर्शाती थीं. यहां हुए खनन से पता चलता है कि प्रत्येक गुंबददार कक्ष के बीचों बीच एक उठा हुआ भाग है, जहां शव को रखा जाता था. मृतक द्वारा अपने जीवनकाल में उपयोग की जाने वाली कई वस्तुएं, जैसे शाही प्रतीक चिन्ह, लकड़ी, हाथी दांत या लोहे से बनी वस्तुएं, सोने के पेंडेंट, चीनी मिट्टी के बर्तन, हथियार, वस्त्र (केवल लुक-खा-खुन कबीले से) को उनके राजा के साथ दफनाया दिया जाता था. मोईदाम में विशेष गुंबदाकार कक्ष होता है, जो प्रायः दो मंजिला होते हैं, जिन तक मेहराबदार मार्गों से पहुंचा जा सकता है. कक्षों में बीच में उभरे स्थान बने हुए थे, जहां मृतकों को दफनाया जाता था. इन टीलों के निर्माण में ईंटों, मिट्टी और वनस्पतियों की परतों का इस्तेमाल किया गया, जिससे यहां का परिदृश्य सुन्दर पहाड़ियों में बदल गया. चराईदेव में मोईदाम परंपरा की निरंतरता यूनेस्को मानदंडों के तहत इसके उत्कृष्ट सार्वभौमिक मूल्य को रेखांकित करती है. यह अंत्येष्टि स्थल न केवल जीवन, मृत्यु और परलोक के बारे में ताई-अहोम मान्यताओं को दर्शाता है, बल्कि यह उनकी सांस्कृतिक पहचान का भी प्रमाण है, क्योंकि इनकी रुझान अब बौद्ध धर्म और हिंदू धर्म की ओर बढ़ रही है.