पटना: तुम्हारी अर्चना कर सकूं, तुम्हारी वंदना कर सकूं, ऐसा कोई विश्वास तो, तुमने दिया नहीं!… मगही और हिंदी के यशस्वी कवि और बिहार विधान परिषद के पूर्व सदस्य बाबूलाल मधुकर के निधन से साहित्य-जगत में शोक है. उनके निधन पर बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन ने एक शोक-सभा आयोजित की, जिसमें साहित्यकारों ने उनके साहित्यिक अवदानों को स्मरण करते हुए उनके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की. शोक-सभा की अध्यक्षता करते हुए सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने कहा कि अपनी विपुल रचनात्मक कृतियों और अवदानों से मधुकर ने मगही के साथ हिंदी साहित्य को समृद्ध किया. एक कवि, कथाकार और नाटककार के रूप में उन्होंने पर्याप्त ख्याति अर्जित की. ‘रमरतिया‘ नामक उनके प्रथम उपन्यास ने ही उन्हें मगही साहित्य में स्थापित कर दिया.
बाबूलाल मधुकर का जन्म 15 सितम्बर, 1941 को पटना जिले के ढेकवाहा ग्राम में हुआ था. उनके पहले नाटक संग्रह को मगही भाषा का भी पहला नाटक कहा जाता है. इस नाटक का नाम था, ‘नयका भोर‘. उपन्यास ‘रमरतिया‘ के अलावा उन्होंने ‘अलगंठवा‘ से भी अपनी छाप छोड़ी. कविता संग्रह ‘लहरा‘, ‘अंगूरी के दाग‘ और ‘रुकमिन के पाती‘ काफी चर्चित रहे. वे संपूर्ण क्रांति के दौरान जेपी आंदोलन से जुड़े प्रखर कवियों में एक थे. उन्होंने मगही के अलावा हिंदी में भी काफी कुछ लिखा. वे निरंतर साहित्य की सेवा करते रहे. इस शोक सभा में वरिष्ठ कवयित्री विभा रानी श्रीवास्तव, डा अर्चना त्रिपाठी, कुमार अनुपम, प्रो सुशील कुमार झा, श्रीकांत व्यास, पत्रकार हृदय नारायण झा, कौशलेन्द्र पाण्डेय, कृष्ण रंजन सिंह, नन्दन कुमार मीत, भगवती प्रसाद द्विवेदी, डा एमके मधु, डा शशि भूषण सिंह आदि ने भी अपने शोकोद्गार व्यक्त किए.