कोलकाता: महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के साल्ट लेक स्थित क्षेत्रीय केंद्र द्वारा ज्योतिबा फुले, कस्तूरबा गांधी और डा भीमराव अंबेडकर के जयंती सप्ताह पर एक परिचर्चा का आयोजन हुआ. इस अवसर पर केंद्र की प्रभारी डा चित्रा माली ने अप्रैल माह की भित्ति पत्रिका का अनावरण किया. भित्ति पत्रिका का संयोजन ज्योति अग्रहरी और रिया साव द्वारा किया गया. डा चित्रा माली ने महात्मा ज्योतिबा फुले द्वारा किए गए स्त्री-शिक्षा के प्रयासों, सत्यशोधक समाज की स्थापना, उसके उद्देश्यों और समाज की संरचना के बारे में जानकारी दी. उन्होंने कहा कि शिक्षा से ही सामाजिक बदलाव संभव है. उन्होंने कहा राष्ट्रमाता कस्तूर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और उनके पुत्र हरिलाल के बीच एक धुरी थीं. उन्होंने अरुण गांधी और उनकी पत्नी सुनन्दा गांधी द्वारा लिखी पुस्तक ‘द फारगाटन वुमन‘ का जिक्र किया और कहा कि शायद लेखकद्वय को यह खला हो कि उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलन में कस्तूरबा के योगदान और भूमिका की उपेक्षा की गई है. उन्होंने कहा कि इसके पूर्व वनमाला पारिख और सुशीला नैयर ने भी गुजराती में कस्तूर पर एक किताब ‘हमारी बा‘ लिखी, जिसमें कस्तूरबा के पारिवारिक जीवन और राजनीतिक जीवन की कर्मठता को दिखाया गया है. उन्होंने कहा कि इतिहास लेखन की परंपरा भी कास्ट, क्लास और जेंडर की अवधारणा से परे नहीं है. यहां भी महिलाओं के कार्यों को वर्णित करने में विभेद किया गया है और यह विभेद आज भी जारी है. परिचर्चा में एमए हिंदी साहित्य द्वितीय छमाही की छात्रा अपर्णा सिंह ने कस्तूरबा पर लिखी अपनी कहानी का पाठ किया एवं अंजली तिवारी, प्रभाकर पांडेय, प्रिया कुमारी प्रसाद व ज्योति चौधरी ने अपनी स्वरचित कविता का पाठ किया. छात्रा रूपल गुप्ता ने उमा शर्मा की कविता का पाठ किया. चतुर्थ छमाही की छात्रा अदिती दुबे ने ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता का पाठ किया.
केंद्र के सहायक प्रोफेसर डा अभिलाष कुमार गौंड ने कहा कि ज्योतिबा फुले और डा भीमराव अंबेडकर के चिंतन को महज दलित विमर्श तक ही न सीमित किया जाए. उनके चिंतन को सार्वभौमिकता में समझने की आवश्यकता है, जिससे समूचे मानव कल्याण की परिकल्पना को समझा जा सकेगा. उन्होंने ज्योतिबा फुले के द्वारा महिलाओं और बच्चों के लिए बनाए गए आश्रमों और उनके उद्देश्यों का भी जिक्र किया. परिचर्चा की अध्यक्षता केंद्र के एसोसिएट प्रोफेसर डा अमित राय द्वारा की गई. अध्यक्षीय वक्तव्य में उन्होंने महात्मा ज्योतिबा फुले, कस्तूरबा और डा अंबेडकर के साथ जुड़े महात्मा, राष्ट्रमाता और महामानव जैसे शब्दों के निहितार्थ पर अपनी बात रखी. उन्होंने कहा कि भारत के इतिहास में गांधी से पहले केवल दो ही महात्मा हुए, पहले महात्मा थे तथागत गौतम बुद्ध और दूसरे महात्मा थे ज्योतिराव फुले. ज्योतिबा फुले का महज़ बीस वर्ष की उम्र में थामस पेन के लेखन से परिचय हो गया था. विशेषकर उनकी ‘राइट आफ मैन‘ पुस्तक पढ़कर वे काफी प्रभावित हुए और सशस्त्र क्रांति के प्रशंसक बने. जिस वर्ष पश्चिम में कार्ल मार्क्स और एंगेल्स का कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणा-पत्र प्रकाशित हुआ था, उसी वर्ष 1848 में फुले ने अस्पृश्य लड़कियों के लिए पहली शाला आरंभ की थी. उनका स्पष्ट मानना था कि शिक्षा के बिना अस्पृश्यों और स्त्रियों की गुलामी समाप्त नहीं हो सकती. राय ने कहा कि 11 मई, 1888 को बंबई (अब मुंबई) के कोलीवाड़ा में महात्मा फुले को लेकर सम्मान कार्यक्रम का आयोजन किया गया. वहां भारी संख्या में अस्पृश्य, शूद्र और कामगारों की उपस्थिति में फुले को ‘महात्मा‘ की उपाधि से सम्मानित किया गया. राय ने कहा कि फुले आस्तिक थे, पर गांधी की तरह वे अपने सत्य को, ‘सत्य ही ईश्वर है‘ न कहकर ‘निर्माता‘ कहते थे. उनका विश्वास था ‘निर्माता‘ ने पृथ्वी के संसाधनों का, सुख साधनों का निर्माण सभी के लिए किया है. उन तक सभी की पहुंच बराबरी से हो, ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए, क्योंकि ऐसा किए बिना मानव जीवन सार्थक और सुंदर नहीं हो सकता. महात्मा फुले का सत्य का विचार व्यावहारिक है. उन्होंने कहा कि भारत के समाज को यथार्थपरक तरीके से देखने का विचार न केवल महात्मा फुले, बल्कि राजा राममोहन राय से लेकर डा बाबासाहेब अंबेडकर जैसे सभी समाज सुधारकों ने दिया है. परिचर्चा में केंद्र के छात्र-छात्राओं के साथ-साथ सहायक प्रोफेसर डा ऋचा द्विवेदी, अनुभाग अधिकारी डा आलोक सिंह, कर्मी रीता बैध उपस्थित थे. संचालन ज्योति अग्रहरी और धन्यवाद ज्ञापन रिया साव ने किया.