टंकारा: हमारी भारत-भूमि धन्य रही है जिसने महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसी अद्भुत विभूतियों को जन्म दिया है. महान आध्यात्मिक पथ-प्रदर्शक श्री अरबिंदो ने महर्षि दयानन्द सरस्वती की महानता को व्यक्त करते हुए कहा था कि वे मनुष्यों और संस्थाओं के मूर्तिकार थे. यह बात राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने महर्षि दयानन्द सरस्वती के 200वें जन्मोत्सव ‘ज्ञान ज्योति पर्व’ स्मरणोत्सव समारोह को संबोधित करते हुए कही. उन्होंने कहा कि मुझे बताया गया है कि आर्य समाज संस्था से जुड़े लगभग 10 हजार केंद्र आज मानवता के विकास और कल्याण के लिए कार्यरत हैं. स्वामी जी के आदर्शों का गहरा प्रभाव लोकमान्य तिलक, लाला हंसराज, स्वामी श्रद्धानन्द और लाला लाजपत राय जैसे महापुरुषों पर पड़ा. स्वामी जी और उनके असाधारण अनुयायियों ने भारत के लोगों में नई चेतना और आत्म-विश्वास का संचार किया. राष्ट्रपति ने कहा कि काठियावाड़ की इस धरती ने भारत-माता के महानतम सपूतों को जन्म दिया है. महर्षि दयानन्द सरस्वती के बाद की पीढ़ियों में इसी क्षेत्र में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का जन्म हुआ.
राष्ट्रपति ने इन दोनों विभूतियों द्वारा लिखी दो अनूठी पुस्तकों का उल्लेख करते हुए कहा कि स्वामी जी ने समाज सुधार का बीड़ा उठाया और सत्य को सिद्ध करने के लिए ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक अमर ग्रंथ की रचना की. महात्मा गांधी ने भारतीय राजनीति में जन-जन को शामिल करते हुए उसे आध्यात्मिक आधार दिया और ‘सत्य के प्रयोग’ नामक आत्मकथा की रचना की. ये दोनों ग्रंथ हमारे देशवासियों का ही नहीं बल्कि मानवता का मार्गदर्शन करते रहे हैं और करते रहेंगे. काठियावाड़ में जन्मे इन दोनों महापुरुषों के जीवन से सभी देशवासियों तथा पूरी मानवता को प्रेरणा मिलती रहेगी. इन दोनों महान विभूतियों से जुड़े एक तथ्य का मैं उल्लेख करना चाहूंगी. अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में स्वामी जी ने नमक कानून का विरोध किया था. उस ग्रंथ के प्रकाशन के लगभग 5 दशकों के बाद महात्मा गांधी ने नमक कानून का उल्लंघन किया और हमारे स्वाधीनता संग्राम में एक नई ऊर्जा का संचार किया. देश की सोई हुई आत्मा को जगाने, समाज को नैतिकता और समानता के आदर्शों से जोड़ने तथा देशवासियों में आत्म-गौरव का संचार करने में सौराष्ट्र की इस भूमि ने पूरे राष्ट्र को सही दिशा दिखाई है. भारत के आधुनिक इतिहास का अध्ययन करने वाले यह जानते हैं कि आरंभ में स्वामी जी संस्कृत में ही अपनी बात कहते और लिखते थे. लेकिन उन्होंने यह सोचा कि उन्हें सामान्य लोगों से सीधा संपर्क बनाना चाहिए. इसलिए स्वामी जी ने समाज को सही दिशा दिखाने के लिए जन-भाषा हिन्दी का प्रयोग करना शुरू किया.