लखनऊ: उत्कर्ष शुक्ल की किताब ‘रहमान खेड़ा का बाघ‘ का विमोचन किताब उत्सव के दौरान हुआ. कार्यक्रम की शुरुआत में मोहम्मद एहसान ने किताब से कुछ अंशों का रोचक पाठ किया. अदिति शर्मा ने कहा कि इस किताब को पढ़ते हुए इस तरह के दृश्य आंखों के सामने उपस्थित हो जाते हैं जैसे सब कुछ हम अपनी आंखों के सामने घटता हुआ देख रहे हों. इसी क्रम में आरके सिंह ने कहा कि इस किताब में घटनाएं ही नहीं बल्कि प्रकृति की डिटेल्स भी इतने खूबसूरत रूप में आई है कि उसे पढ़ना खुद को एक समृद्ध करने वाला अनुभव है. लेखक उत्कर्ष शुक्ल से देवेंद्र सिंह ने बातचीत की. देवेंद्र के सवालों का जवाब देते हुए उत्कर्ष शुक्ल ने कहा कि ‘रहमान खेड़ा का बाघ‘ लिखने के पहले इसे मैं न जाने कितनी बार लोगों को सुना चुका था. इसलिए ये मेरी स्मृति में लगातार ताजी बनी रही. यही बात इस किताब की दूसरी कहानियों के बारे में भी सच है. अपनी कहानियों के एक किरदार कमाल के बारे में बात करते हुए उत्कर्ष शुक्ल ने कहा कि वो जंगल को किताब की तरह पढ़ता है. इस किताब को लिखते हुए कोशिश यही रही कि जंगल को जंगल की तरह ही पढ़ और समझ सकूं, या कि मनुष्यों के नजरिए की इस दुनिया में वन्य जीवों की दुनिया को वन्य जीवों के नजरिए से भी समझ सकूं. मुश्किल ये है कि हम वन्य जीवों के साथ जीने का सलीका भूल गए हैं. मुझे लगता है कि ये सामंजस्य कहीं खो गया है. इसी दोबारा अर्जित करने की जरूरत है.
इसी दौरान एक सत्रे में रविकांत द्वारा संपादित ओम प्रकाश वाल्मीकि की ‘संपूर्ण कविताएं‘ और ‘प्रतिनिधि कविताएं‘ तथा प्रमोद रंजन द्वारा संपादित ‘बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी‘ का लोकार्पण प्रो रमेश दीक्षित तथा वीरेंद्र यादव ने किया. इस अवसर दोनों रविकांत और प्रमोद रंजन भी मौजूद रहे. कार्यक्रम का संचालन युवा कवि सीमा सिंह ने किया. इस अवसर पर ओम प्रकाश वाल्मीकि की दोनों किताबों के संपादक प्रो रविकांत ने कहा कि ओम प्रकाश वाल्मीकि अपनी कविताओं में बहुत सारे कुहासों को चीरकर समता और स्वतंत्रता का संदेश देते हैं. वे बार बार कहते रहे कि हिंदी की कथित मुख्य धारा की कविता में दलितों के जीवन के अपमान, अभाव, दुख और विसंगतियों का भयावह अभाव है. उन्होंने अपनी कविता में दलित जीवन के इन सभी पहलुओं पर आजीवन लिखा. उनकी कविताएं लगातार मुठभेड़ की मुद्रा में हैं. इसीलिए उनकी जरूरत लगातार बनी हुई है. बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी के संपादक प्रमोद रंजन ने कहा कि बहुजन साहित्य की प्रेरणा बुद्ध से मिलती है और ये जाति से मुक्ति की एक यात्रा है. आधुनिक काल में बहुजन साहित्य के प्रेरणा स्रोत लखनऊ के ही बोधानंद थे. इसके बाद उनके प्रतिभाशाली शिष्य चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु ने बहुजन प्रकाशन शुरू किया. उनके यहां भी जाति के बजाय जाति को देखने का दृष्टिकोण ही प्रमुखता पाता है. वे भी जाति को खत्म करने पर जोर देते हैं. बहुजन साहित्य वैज्ञानिकता को, तर्कशीलता को अपने भीतर जगह देता है. बहुजन साहित्य की अवधारणा बहुमत की अवधारणा न होकर बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय की अवधारणा है.