नई दिल्ली: “बच्चों को सुनने के लिए धैर्य की जरूरत होती है, जिसकी आजकल हमारे पास बहुत कमी है. बच्चे जब किसी के साथ संवाद करते हैं तो वह उससे अपनी शब्दावली को बना रहे होते हैं. बच्चों का भाषा जगत बहुत तार्किक और सृजनात्मक होता है. हमें भाषा के साथ खेलने के लिए, नए प्रयोग करने के लिए बच्चों का हौसला बढ़ाना चाहिए.” ये बातें राजकमल प्रकाशन समूह की मासिक विचार-बैठकी ‘सभा’ की तीसरी कड़ी में ‘भाषा में बच्चों की जगह’ विषय पर परिचर्चा के दौरान वक्ताओं ने कही. इंडिया हैबिटैट सेंटर के गुलमोहर हाल में आयोजित इस परिचर्चा में शिक्षाविद् मुकुल प्रियदर्शिनी, सम्पादक मनीषा चौधरी, रूम टू रीड के डायरेक्टर शक्तिब्रत सेन और अंकुर के सम्पादकीय सलाहकार जोज़फ़ मथाई से लेखक-अध्यापक सुदीप्ति ने संवाद किया. विषय की प्रस्तावना सत्यानन्द निरुपम ने रखी. सुदीप्ति ने कहा कि भाषा ने ही मनुष्य को अन्य सभी प्राणियों से अलग बनाया है. मुझे यह कहने में बिलकुल संकोच नहीं है कि बच्चे जो लिखते हैं उसे वयस्क धैर्य या अधैर्य किसी भी तरह से नहीं पढ़ते हैं. शिक्षक भी केवल अंक देने के लिए पढ़ते हैं. अंक देते समय वह भाषा की वर्तनी की अशुद्धियों में खो जाते हैं. बच्चे ने मूल बात क्या लिखी है, उस तक नहीं पहुंच पाते. मनीषा चौधरी ने कहा कि भाषा बच्चों के अस्तित्व से जुड़ी हुई है. बच्चे भाषा से दुनिया को समझने और खुद को अभिव्यक्त करने का प्रयास करते हैं. भाषा सीखने के लिए एक उपयुक्त माहौल होना जरूरी है. भाषाई कौशल का अभ्यास बच्चों के लिये जरूरी है और इसमें अहम योगदान बाल साहित्य का है. मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में या तो बाल साहित्य उपलब्ध नहीं है और अगर उपलब्ध है तो अंग्रेजी और अन्य भाषाओं में है. अत्यधिक महंगा होने के कारण वह भी बड़े तबके की पहुंच से दूर है.
जोज़फ़ मथाई ने बच्चों के लिए उपलब्ध और बच्चों द्वारा लिखे गए साहित्य की बात की और कहा कि बच्चे पाठक के अलावा लेखक भी बन सकते हैं. हम बच्चों को भाषा से जूझना नहीं सिखाते. हमें भाषा के साथ खेलने के लिए, नए प्रयोग करने के लिए, बच्चों का हौसला बढ़ाना चाहिए. शक्तिब्रत सेन ने कहा कि सत्यजित राय और उनके परिवार ने बाल-साहित्य का समृद्ध संग्रह तैयार किया है, जिस पर अभी काम करने की जरूरत है. उन्होंने कहा कि बच्चों के साहित्य में जिस भाषा का उपयोग हो रहा है वह भाषा किसकी है? इस बात पर बहस करना बहुत जरूरी है. जब तक आप बच्चों की भाषा के निर्माण को नहीं समझते हैं तब तक आप बच्चों की भाषा को भी नहीं समझ सकते हैं. मुकुल प्रियदर्शिनी ने बच्चों की सृजनात्मकता को रेखांकित करते हुए कहा कि बच्चों का भाषा जगत बहुत तार्किक और सृजनात्मक होता है. बच्चे भाषा में जो त्रुटियां करते हैं उनके पीछे भी कोई न कोई व्याकरणिक आधार होता है. वे किसी को देखकर नहीं बल्कि भाषा के नियमों के अनुसार भाषा सीखते हैं. उन्होंने कहा कि हमारे स्कूलों में बच्चों को उनके अनुकूल वातावरण नहीं मिलता है. स्कूल में जाने के बाद अक्सर बच्चे में सवाल पूछने और जानने की इच्छा कम होने लगती है. वह एक बने बनाए ढांचे में पढ़ने को मजबूर हो जाते हैं, जिससे उनमें पढ़ाई को लेकर अरुचि पैदा होने लगती है. व्याकरण का बोझ बच्चों को भाषा की कक्षा से दूर ले जाता है. जब हम बच्चों को सवाल करने से रोकते हैं तो दरअसल हम उन्हें सोचने और अपने आप को अभिव्यक्त करने से रोक रहे होते हैं. जो पाठ बच्चों को पसंद होते हैं वह अक्सर हमारे पाठ्यक्रम में नहीं होते हैं. हमें बच्चों को भाषा के विविध रूपों से रूबरू करवाने के लिए संगीत और कला को भी उनकी भाषा से जोड़ने की जरूरत है. लेकिन सब कुछ केवल स्कूल से एक्सपेक्ट नहीं किया जा सकता, बदलाव की शुरुआत हमें अपने परिवार के स्तर पर करनी होगी.