चित्रकूट: “अष्टाध्यायी भारत के भाषा विज्ञान का, भारत की बौद्धिकता का और हमारी शोध संस्कृति का हजारों साल पुराना ग्रंथ है. कैसे एक-एक सूत्र में व्यापक व्याकरण को समेटा जा सकता है, कैसे भाषा को ‘संस्कृत विज्ञान‘ में बदला जा सकता है, महर्षि पाणिनी की ये हजारों वर्ष पुरानी रचना इसका प्रमाण है.” यह बात प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चित्रकूट में जगद्गुरू रामभद्राचार्य की पुस्तकों का विमोचन करते हुए कही. ‘अष्टाध्यायी भाष्य‘, ‘रामानन्दाचार्य चरितम्‘ और ‘भगवान कृष्ण की राष्ट्रलीला‘ ग्रंथ को भारत की महान ज्ञान परंपरा की समृद्धि का एक और माध्यम मानते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि आप देखेंगे, दुनिया में इन हजारों वर्षों में कितनी ही भाषाएं आईं, और चली गईं. नई भाषाओं ने पुरानी भाषाओं की जगह ले ली. लेकिन, हमारी संस्कृत आज भी उतनी ही अक्षुण्ण, उतनी ही अटल है. संस्कृत समय के साथ परिष्कृत तो हुई, लेकिन प्रदूषित नहीं हुई. इसका कारण संस्कृत का परिपक्व व्याकरण विज्ञान है. केवल 14 माहेश्वर सूत्रों पर टिकी ये भाषा हजारों वर्षों से शस्त्र और शास्त्र, दोनों ही विधाओं की जननी रही है. संस्कृत भाषा में ही ऋषियों के द्वारा वेद की ऋचाएं प्रकट हुई हैं. इसी भाषा में पतंजलि के द्वारा योग का विज्ञान प्रकट हुआ है. इसी भाषा में धनवंतरी और चरक जैसे मनीषियों ने आयुर्वेद का सार लिखा है. इसी भाषा में कृषि पाराशर जैसे ग्रन्थों ने कृषि को श्रम के साथ-साथ शोध से जोड़ने का काम किया. इसी भाषा में हमें भरतमुनि के द्वारा नाट्यशास्त्र और संगीतशास्त्र का उपहार मिला है. इसी भाषा में कालिदास जैसे विद्वानों ने साहित्य के सामर्थ्य से विश्व को हैरान किया है. और, इसी भाषा में अंतरिक्ष विज्ञान, धनुर्वेद और युद्ध-कला के ग्रंथ भी लिखे गए हैं.
प्रधानमंत्री ने अपने सारगर्भित भाषण में कहा कि ये तो मैंने केवल कुछ ही उदाहरण दिये हैं. यह सूची इतनी लंबी है कि आप एक राष्ट्र के तौर पर भारत के विकास का जो भी पक्ष देखेंगे, उसमें आपको संस्कृत के योगदान के दर्शन होंगे. आज भी दुनिया की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीज़ में संस्कृत पर रिसर्च होती है. अभी हमने ये भी देखा है कि कैसे भारत को जानने के लिए लिथुआनिया देश की राजदूत ने भी संस्कृत भाषा सीखी है. यानी संस्कृत का प्रसार पूरी दुनिया में बढ़ रहा है. गुलामी के एक हजार साल के कालखंड में भारत को तरह-तरह से जड़ों से उखाड़ने का प्रयास हुआ. इन्हीं में से एक था- संस्कृत भाषा का पूरा विनाश. हम आजाद हुए लेकिन जिन लोगों में गुलामी की मानसिकता नहीं गई, वो संस्कृत के प्रति बैर भाव पालते रहे. कहीं कोई लुप्त भाषा का कोई शिलालेख मिलने पर ऐसे लोग उसका महिमा-मंडन करते हैं, लेकिन हजारों वर्षों से मौजूद संस्कृत का सम्मान नहीं करते. दूसरे देश के लोग मातृभाषा जानें तो ये लोग प्रशंसा करेंगे लेकिन संस्कृत भाषा जानने को ये पिछड़ेपन की निशानी मानते हैं. इस मानसिकता के लोग पिछले एक हजार साल से हारते आ रहे हैं और आगे भी कामयाब नहीं होंगे. प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि संस्कृत केवल परम्पराओं की भाषा नहीं है, ये हमारी प्रगति और पहचान की भाषा भी है. बीते 9 वर्षों में हमने संस्कृत के प्रसार के लिए व्यापक प्रयास किए हैं. आधुनिक संदर्भ में अष्टाध्यायी भाष्य जैसे ग्रंथ इन प्रयासों को सफल बनाने में बड़ी भूमिका निभाएंगे. रामभद्राचार्य जी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा कि आप हमारे देश के ऐसे संत है, जिनके अकेले ज्ञान पर दुनिया की कई यूनिवर्सिटीज़ स्टडी कर सकती हैं. बचपन से ही भौतिक नेत्र न होने के बावजूद आपके प्रज्ञा चक्षु इतने विकसित हैं, कि आपको पूरे वेद-वेदांग कंठस्थ हैं. आप सैकड़ों ग्रन्थों की रचना कर चुके हैं. भारतीय ज्ञान और दर्शन में ‘प्रस्थानत्रयी‘ को बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी कठिन माना जाता है. जगद्गुरू उनका भी भाष्य आधुनिक भाषा में लिख चुके है. इस स्तर का ज्ञान, ऐसी मेधा व्यक्तिगत नहीं होती. ये मेधा पूरे राष्ट्र की धरोहर होती है. इसीलिए हमारी सरकार ने 2015 में स्वामीजी को पद्मविभूषण से सम्मानित किया था.