नई दिल्ली: राष्ट्र और देश दोनों के अलग-अलग अर्थ हैं. उसी तरह राष्ट्रवाद और देशभक्ति में भी अंतर है. आज के नौजवानों को देशभक्त बनने की जरूरत है न कि एक राष्ट्रवादी. आज का राष्ट्रवाद संकीर्ण है, उसमें विविधता नहीं है. जिस उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद ने हमें आज़ादी दिलाई थी, उसमें और वर्तमान प्रचलित राष्ट्रवाद में बहुत फ़र्क है. राष्ट्रवाद के बारे में अगर हमें अपनी समझ बनानी हो तो इसे ऐसे समझें कि देश की विविधिता ही असली राष्ट्रवाद है. ये बातें इंडिया हैबिटेट सेंटर और राजकमल प्रकाशन समूह की साझा पहल विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा‘ की दूसरी कड़ी में आयोजित परिचर्चा के दौरान वक्ताओं ने कही. ‘सभा‘ की इस परिचर्चा का विषय ‘राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद‘ था. परिचर्चा की शुरुआत में रमाशंकर सिंह ने एस इरफान हबीब द्वारा संपादित किताब ‘भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ‘ का परिचय दिया. प्रथम वक्ता प्रो ज़ोया हसन ने कहा, “आज जो राष्ट्रवाद प्रचलन में है उसमें और उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद जिसने हमें आज़ादी दिलाई थी, उसमें बहुत फ़र्क है. इस समय के राष्ट्रवाद में दूसरों के लिए जगह ही नहीं है बल्कि उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद में ऐसा नहीं था. इस वक्त का राष्ट्रवाद दूसरे नागरिकों से उम्मीद करता है कि वह देश के लिए बलिदान दें.” उन्होंने कहा कि यह राष्ट्रवाद सिर्फ़ भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी प्रचलन में है. इसे आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद या दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद कह सकते हैं.
प्रो बद्रीनारायण ने कहा, “आज़ादी से पहले लोगों के मन में जो भावना थी उसे हम राष्ट्रवाद नहीं बल्कि देशभक्ति कह सकते हैं. देशभक्ति राष्ट्रवाद नहीं है.” उन्होंने कहा, “राष्ट्र और देश दोनों के अलग-अलग अर्थ होते हैं. देश वह है जहां तक हमें दिखता है. देश का मतलब है मां, माटी और मानुष यानी हमारे आसपास का परिवेश ही देश है.” डा रतनलाल ने वर्तमान के उग्र राष्ट्रवाद की आलोचना की और कहा कि डा अम्बेडकर 1930 से पहले जो सवाल उठा रहे थे वे आज भी प्रासंगिक हैं. देश आज भी उसी द्वंद में है, उस समय एक समूह था जो अपने आप को बहिष्कृत महसूस कर रहा था और वह आज भी खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है. प्रो अपूर्वानंद ने कहा कि अल्पसंख्यक क्या सोचते हैं इसका जवाब खुद उन्हीं को देना चाहिए. लेकिन देश में अल्पसंख्यकों को अपने बारे में बोलने का अधिकार नहीं दिया जाता है. अगर वो बोलते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक कहा जाता है और उनके पक्ष में बोलने वाले को धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है. पं जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रवाद की ताकत और नुकसान दोनों से भली भांति परिचित थे. यह उनके विपुल लेखन में देखा जा सकता है. वे जानते थे कि राष्ट्रवाद की परिभाषा को बहुसंख्यक ही निर्धारित करेंगे. एस इरफान हबीब ने कहा कि राष्ट्रवाद हमारे लिए बहुत नई अवधारणा है जिसे हमने उन्नीसवीं सदी में यूरोप से अपनाया. लेकिन जिस तरह से यूरोपीय सेकुलरिज्म को हमने अपने अनुसार ढाला उसी तरह राष्ट्रवाद का भी हमने भारतीयकरण किया है. राष्ट्रवाद की परिभाषा हमारे लिए वो नहीं है जो यूरोप में है.