श्रीनगर: “सतत विकास का सबक कश्मीर की विरासत का हिस्सा है. यहां की एक कहावत है ‘अन् पोशि तेलि, येलि वन् पोशि‘ यानी तभी तक अन्न रहेगा जब तक वन रहेंगे. कुदरत की सौगातों को बचा कर रखने की यह सीख अनमोल है.” राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने यह बात श्रीनगर में कश्मीर विश्वविद्यालय के 20वें दीक्षांत समारोह को संबोधित करते हुए कही. राष्ट्रपति ने कश्मीर के समृद्ध साहित्य का कई बार उल्लेख किया और कहा कि कुदरत ने कश्मीर को बेपनाह खूबसूरती दे रखी है. फारसी शायरी में ठीक ही कहा गया है कि अगर ज़मीन पर फ़िरदौस कहीं है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है. धरती की इस जन्नत को बचाए रखने की ज़िम्मेदारी हम सभी की है और नौजवान पीढ़ी को खास तौर से ये ज़िम्मेदारी निभानी है. हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र को बचाकर रखने में कश्मीर विश्वविद्यालय की टीम को भी सजग रहना होगा. उन्होंने विश्वविद्यालय के ग्लेशियोलॉजी, जैव-विविधता संरक्षण तथा हिमालयन आइस-कोर प्रयोगशाला से जुड़े कामों की तारीफ की.
राष्ट्रपति ने कहा कि आपकी यूनिवर्सिटी के प्रतीक में आदर्श वाक्य भी लिखा हुआ है. उसमें एक तरफ उपनिषद के तीन शब्द हैं और दूसरी तरफ कुरान-शरीफ की आयत का एक हिस्सा है. उन दोनों का मतलब एक ही है ‘हम अंधकार से प्रकाश की ओर चलें; ज़ुलमात या अंधेरों से नूर या रोशनी की ओर चलें‘. इन अमर संदेशों में सबक भी है और दुआ भी, शिक्षा भी है और प्रार्थना भी. तालीम की रोशनी की ओर, अमन-चैन के उजाले की ओर हमारे नौजवान जितना आगे बढ़ेंगे, उतना ही आगे हमारा देश बढ़ेगा. जिस समाज और देश के नौजवान विकास और अनुशासन का रास्ता पकड़ते हैं, वह समाज तथा देश तरक्की और खुशहाली के रास्ते पर आगे बढ़ता है.
राष्ट्रपति ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय ज्ञान प्रणालियों पर जोर दिया गया है. हमारे नौजवानों को भारतीय ज्ञान प्रणाली के बारे में अच्छी जानकारी दी जाए तो उन्हें एक से बढ़कर एक प्रेरक उदाहरण मिलेंगे. आज से लगभग 1200 साल पहले श्रीनगर शहर को झेलम नदी की बाढ़ और तबाही से बचाने के लिए सुय्या नाम के विशेषज्ञ ने जो काम किया था, उसे आज की भाषा में हाइड्रोलिक इंजीनियरिंग कह सकते हैं. उन्होंने झेलम नदी, जिसे तब वितस्ता कहा जाता था, के बहाव को कई जगहों पर मोड़ दिया था. तत्कालीन साहित्य में उल्लेख मिलता है कि नदियों को सुय्या वैसे ही नचाते थे जैसे संपेरा सांप को नचाता है. आप जब झेलम के बहाव को देखते हैं तो यह बात बिलकुल सही दिखाई देती है. जल संसाधन प्रबंधन के ऐसे प्राचीन उदाहरण पूरे देश में पाए जाते हैं. ज्ञान-विज्ञान के हर क्षेत्र में हमारे देश के पास अनमोल खजाने हैं जो इस देश की मिट्टी में फले-फूले हैं. ऐसे जैविक रूप से विकसित ज्ञान प्रणालियां को आज के हालात में फिर से इस्तेमाल करने के तरीके खोजना शैक्षणिक जगत की ज़िम्मेदारी है.