– जय प्रकाश पाण्डेय
हिंदी आज केवल भारत में ही नहीं विश्व पटल पर चकमक कर रही है. सिनेमा हो या साहित्य, बाजार हो या कूटनीति हिंदी को उसकी जगह मिल रही है. हिंदी को जाज्वल्यमान बनाए रखने में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की अगुआई में वर्तमान सरकार की बड़ी भूमिका है. इसने विदेशों में रह रहे हमारे भारतवंशियों को एक नए उत्साह से भर दिया है. प्रवासी भारतीय दिवस के दौरान हालैंड से आए नन्हकू की टूटी-फूटी डच मिश्रित हिंदी में कही इस बात के अपने अर्थ हैं कि- ‘यह नया भारत है. यहां के महानगरों की तेज चमचमाती लाइटें, चौड़ी सड़कें और गगनचुंबी इमारतों के बीच अब हम यहां हिंदी में बात कर पाते हैं. हमें खुशी है कि हमारे बाप-दादाओं की जन्मभूमि में हमारी मातृभाषा लहलहा रही है. मोदी जी के शासन में हिंदी का मान बढ़ा है.‘
नन्हकू अठारहवीं सदी में गिरमिटिया मजदूर के रूप में सुरीनाम गए घूरन की पांचवी पीढ़ी के वारिस हैं. सुरीनाम से मारीशस होते हुए 1950 के दशक में उनका परिवार हालैंड पहुंचा, पर परिवार की हर पीढ़ी का विस्थापन उनके दिलों में बस रहे भारत को और भी मजबूत करता रहा. यही वजह है कि स्थानीय वाशिंदों से शादी-व्याह कर लेने से परिवार की नस्ली रंगत भले ही काफी कुछ बदल गई हो, पर संस्कृति, परंपरा और बोली में भारत और हिंदी अब भी जिंदा हैं. विश्व हिंदी सम्मेलन, प्रवासी भारतीय दिवस और हिंदी दिवस जैसे आयोजन में हर साल शामिल होने वाले विद्वानों की बढ़ती गिनती भी हिंदी भाषा की मजबूती का परिचायक है. विदेश जाने वाले भारतवंशियों की भूमिका को भी भुलाया नहीं जा सकता.
शायद यही वजह थी कि प्रवासी भारतीयों की चिंता भारतीय नेतृत्व के दिमाग में हमेशा रही. साल 1841 की शुरुआत से आज तक जहां भारतवंशी हर दौर में अपनी माटी, बोली और भाषा से जुड़े रहे, तो उनके देश ने भारत ने भी उन्हें कभी छोड़ा नहीं. साल 1960 की शुरुआत में हवाई जहाज के लंबी दूरी के पसंदीदा आवागमन के साधन के रूप में पानी के जहाज की जगह ले लेने के चलते हालात और सकारात्मक हो गए. इसके बाद तो मानव संसाधन की दक्षता से भारतीयों के विदेश प्रवास का संबंध साफ दिखता है. अमेरिका को ही देखें तो वहां पारित अप्रवास और राष्ट्रीयता कानून, 1965 ने जहां कौशल संपन्न पेशेवरों और छात्रों के प्रवास की राह आसान की वहीं अमेरिका में भारतीय प्रवासी समुदाय की संख्या और साख को बदलकर रख दिया.
1960 में जहां केवल 12000 भारतीय अमेरिका में रहते थे, वही पिछले दिनों उनकी संख्या 44,60,000 के पार हो चुकी है. यह क्रम हर आने वाले दिन के साथ बढ़ता जा रहा है. भारत के सूचना प्रौद्योगिकी क्षमता केंद्र के रूप में तेजी से उभरने, बढ़ती अर्थव्यवस्था और परमाणु शक्ति संपन्न ताकतवर राष्ट्र बनने से भी प्रवासी भारतीयों में भरोसा जगा. खेल के मैदान, व्यापार सम्मेलनों, अंतरराष्ट्रीय बैठकों से लेकर अंतरिक्ष की ऊंची उड़ानों तक में जब चहुंओर भारत का नाम गूंजने लगा, तब भारतवंशियों का अपने देश की तरफ झुकना स्वाभाविक था. हमें यह मानने में संकोच नहीं होना चाहिए कि आत्मिक लगाव अब व्यावसायिक रूप धरने को आतुर था. सैटेलाइट टीवी, इंटरनेट के आगमन और उसके बाद 1990 के दशक में घर-घर में टीवी की पहुंच के बाद विदेशों में बसे भारतीयों को लगातार अपने देश से संपर्क का साधन मिल गया.
दुनिया के सौ से भी अधिक देशों में 3.2 करोड़ भारतीय रहते हैं ये पढ़े-लिखे, कामगार और सफल प्रवासी भारतीय, दुनिया भर में फैले भारतीय मूल के लोगों को राह दिखाते हैं. विश्व हिंदी सम्मेलन भी हिंदी भाषा के विकास और संवर्धन के सबसे बड़े अन्तर्राष्ट्रीय मेले का रूप ले चुका है, जिसमें विश्व भर से हिंदी विद्वान, साहित्यकार, पत्रकार, भाषा विज्ञानी, विषय विशेषज्ञ तथा हिंदी प्रेमी जुटते हैं. अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर हिंदी के प्रति जागरूकता पैदा करने, समय-समय पर हिंदी की विकास यात्रा का आकलन करने, लेखक व पाठक दोनों के स्तर पर हिंदी साहित्य के प्रति सरोकारों को और दृढ़ करने, जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में हिंदी के प्रयोग को प्रोत्साहन देने तथा हिंदी के प्रति प्रवासी भारतीयों के भावुकतापूर्ण व महत्त्वपूर्ण रिश्तों को और अधिक गहराई व मान्यता प्रदान करने के उद्देश्य से 1975 में विश्व हिंदी सम्मेलन की शुरुआत भले ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पहल हुई थी, और पहला विश्व हिंदी सम्मेलन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के सहयोग से नागपुर में सम्पन्न हुआ, जिसमें विनोबा भावे ने भी अपना विशेष सन्देश भेजा था.
इस बात से किसी को गुरेज नहीं होगा कि भारत भूमि के साथ-साथ अनिवासी भारतीयों और भारत मूलवंशियों के बीच हिंदी की निर्विवाद लोकप्रियता के पीछे जिन लोगों का हाथ रहा उनमें अटल बिहारी वाजपेयी और विदेश मंत्री रहीं सुषमा स्वराज से भी कई कदम आगे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की भूमिका है. अपनी लगभग हर विदेश यात्रा में प्रधानमंत्री संबंधित देश में बसे भारतवंशियों से उनकी अपनी भाषा में, हिंदी में बात कर, देश का संदेश पहुंचाने की कोशिश की है. विदेश में बसे भारतवंशियों की नई पेशेवर पीढ़ी, जो भारत की सियासत और बाजार को बखूबी समझती है और एक खांटी कारोबारी की तरह भारत की ग्रोथ से अपने फायदों को जोड़ती है, के लिए प्रधानमंत्री मोदी की छवि ब्रांड एंबेसडर की तरह है. भारतवंशियों की यह प्रोफेशनल और कामयाब जमात अपनी कारोबारी तरक्की को प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भारत की सफलता से जोड़कर देखती है. यही वजह है कि भारत को लेकर उम्मीदों की अनोखी ग्लोबल जुगलबंदी न केवल न्यूयॉर्क के मैडिसन स्क्वेयर गार्डन और सिडनी के अल्फोंस एरिना पर दिखती है, बल्कि इसी के चलते, भारत में निवेश बुलंदी पर है.
आज विदेश में बसी 312,33,234 भारतीयों की नई पीढ़ी गिरमिटिया मजदूर की छवि से उबर चुकी है. नए भारतीयों में ज्यादातर बैंकिंग, सूचना तकनीक, वित्तीय या मैनेजमेंट प्रोफेशनल हैं, जो अपनी जड़ों की तलाश के लिए नहीं बल्कि ग्लोबल मंच पर भारतीय होने के फायदे के लिए भारत को देख रहे हैं. इन पेशेवरों ने अपनी क्षमताओं के दम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों, बैंकों व निवेश कंपनियों बड़ी व रणनीतिक जिम्मेदारियां हासिल की हैं. ये भारतीय होने का फायदा चाहते हैं. इंडिया फंड्स के भारतीय मैनेजरों ने मोदी लहर के सहारे अपने मालिकों को जबरदस्त मुनाफा कमा कर दिया है, और खुद को भी समृद्ध किया है. अन्य क्षेत्रों में मौजूद भारतीय पेशेवरों को भी अपने कारोबार के विस्तार या आउटसोर्सिंग के लिए तरक्की करता भारत चाहिए. शायद यही वजह है कि हर बार विश्व हिंदी सम्मेलन हो या प्रवासी भारतीय दिवस, यह एक बड़े अंतर्राष्ट्रीय भारतीय मेले जैसा दिखता है. हिंदी में व्यावसायिक मौके बढ़े हैं, तो आखिर इसका लाभ भारतवंशी क्यों न उठाएं. हिंदी और भारतीय भाषाओं के विकास की गति यह बता रही है कि देश और दुनिया में अपनी भाषा के मान-सम्मान और अवसर की इससे बेहतर स्थितियां पूर्व में कभी नहीं थीं. वाकई इसे हम हिंदी का स्वर्णयुग कह सकते हैं.