नई दिल्ली: हिंदी साहित्य के वरिष्ठ साहित्यकार व समालोचक रमेश कुंतल मेघ नहीं रहे. वे पिछले काफी समय से स्मृति-लोप का शिकार थे और चंडीगढ़ में अपनी बेटी के यहां रह रहे थे. मेघ के निधन से उन्हें जानने और मानने वाले साहित्यकारों के बीच दुःख की लहर व्याप्त हो गई. मेघ ने प्रगतिवादी आलोचना का क्षेत्र विस्तार तो किया ही आलोचना में अंतरानुशासन को विशेष महत्त्व दिया. आधुनिकता, सौंदर्यशास्त्र और समाजशास्त्र उनके अध्ययन के प्रमुख क्षेत्र थे. रमेश कुंतल मेघ का जन्म 1 जून, 1931 को हुआ. उन्होंने इलाहाबाद से भौतिकी, गणित और रसायनशास्त्र में बीएससी की डिग्री तथा काशी हिंदू विश्वविद्यालय से साहित्य में पीएचडी की उपाधि प्राप्त की. वे बिहार विश्वविद्यालय, आरा; पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ और गुरुनानकदेव विश्वविद्यालय, अमृतसर के अलावा यूनिवर्सिटी ऑफ अर्कांसस, अमेरिका में भी प्राध्यापक रहे.
रमेश कुंतल मेघ आलोचकों और विचारकों की उस परम्परा से आते हैं जिन्होंने कभी भी अपने आप को किसी विचारधारा या वाद में समेटकर नहीं रखा. चाहे सैद्धांतिकी हो, सौन्दर्यशास्त्र हो या फिर मिथकशास्त्र- इन सभी विषयों को उन्होंने अपनी ऐतिहासिक-सांस्कृतिक और समाजवैज्ञानिक दृष्टि से एक वैश्विक ऊंचाई प्रदान की. मेघ की चर्चित कृतियों में ‘मिथक और स्वप्न‘, ‘आधुनिकता बोध और आधुनिकीकरण‘, ‘तुलसी: आधुनिक वातायन से‘, ‘मध्ययुगीन रस दर्शन और समकालीन सौन्दर्य बोध‘, ‘क्योंकि समय एक शब्द है‘, ‘कला शास्त्र और मध्ययुगीन भाषिकी क्रांतियां‘, ‘सौन्दर्य-मूल्य और मूल्यांकन‘, ‘अथातो सौन्दर्य जिज्ञासा‘, ‘साक्षी है सौन्दर्य प्राश्निक‘, ‘वाग्मी हो लो!‘, ‘मन खंजन किनके?’ ‘कामायनी पर नई किताब‘, ‘खिड़कियों पर आकाशदीप‘ आदि शामिल हैं. ‘विश्व मिथक सरित्सागर‘ के लिए साहित्य अकादमी से सम्मानित मेघ स्वयं को ‘आलोचिंतक‘ कहते थे यानी आलोचक और चिंतक का समेकित रूप. उनके व्यक्तित्व में एक और खास विशेषता थी कि वे अपने आप को कार्ल मार्क्स का ध्यान शिष्य और आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी का अकिंचन शिष्य मानते थे. हिंदी साहित्य में यह अपनी तरह का अकेला और निराला दावा था.