वाराणसी: काशी हिंदू विश्वविद्यालय के सरदार वल्लभ भाई पटेल छात्रावास स्थित वाग्देवी सभागार में ‘महामनामृत व्याख्यान शृंखला‘ के तहत ‘राष्ट्रभाषा का वर्तमान परिप्रेक्ष्य‘ विषय पर बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष डा अनिल सुलभ ने मुख्य-वक्ता के रूप में व्याख्यान दिया. व्याख्यान के पूर्व डा सुलभ का अंग-वस्त्रम और स्मृति-चिन्ह देकर, विश्वविद्यालय के वरिष्ठ अनुभाग अधिकारी और कवि डा रमेश कुमार ‘निर्मेष‘, विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्राध्यापक और सभा के अध्यक्ष प्रो अशोक कुमार ज्योति तथा विश्वविद्यालय के पत्रकारिता और जनसंप्रेषण विभाग में प्राध्यापक और छात्रावास के संरक्षक डा धीरेंद्र कुमार राय ने सम्मानित किया. अपने व्याख्यान में डा सुलभ ने कहा कि ‘राष्ट्रीयता‘, ‘राष्ट्रीय-चेतना‘ और ‘देश की एक सूत्रबद्धता‘ के लिए देश की ‘एक राष्ट्रभाषा‘ का होना अनिवार्य है. ‘हिंदी‘ ने देश को अंग्रेजों के विरुद्ध देश को जिस एकता के सूत्र में बांधा था, अब उसकी आवश्यकता भारत की अखंडता और ‘विविधता में एकता‘ के सूत्र-वाक्य की सिद्धि में है. हिंदी में देश की राष्ट्रभाषा बनने की श्रेष्ठतम योग्यता है. उन्होंने कहा कि हिंदी के राष्ट्रभाषा बनने से क्षेत्रीय भाषाओं को कोई हानि नहीं होगी. यह मात्र एक भ्रांति है. जैसे हिंदी के साथ हिंदी पट्टी की भाषाएं हमजोली बनकर चलती हैं, वैसे ही हिंदीतर भाषी क्षेत्रों की भाषाएं भी चलेंगी और उनकी गरिमा तथा महत्ता कभी कम नहीं होगी. डा सुलभ ने कहा कि उन्होंने देश के अनेक हिस्सों का भ्रमण किया है और पाया कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के विरोध की बातें मात्र राजनीतिक हैं. उन्होंने कहा कि स्वतंत्रता से पूर्व हिंदी के समर्थन में अनेक महत्त्वपूर्ण कार्य हुए. दुर्भाग्य है कि स्वतंत्रता के पश्चात् वह सब कुछ नहीं हो पाया, जिसके लिए हमारे बलिदानी स्वतंत्रता-सेनानियों और साहित्य सेवियों ने सोचा था.
डा सुलभ ने कहा कि यदि भारत में हिंदी को ‘राष्ट्रभाषा‘ बना दिया गया होता तो आज हिंदी, संख्या की दृष्टि से, विश्व की सबसे बड़ी भाषा होती. चीन के ‘मंदारिन‘ को यह स्थान केवल इसलिए प्राप्त है कि, वह वहां की ‘राष्ट्रभाषा‘ है. इसलिए वह संपूर्ण चीन में बोली और लिखी जाती है. चीन का प्रत्येक नागरिक इसे जानता है. जबकि चीन में भी अनेक भाषाएं हैं, जिनके स्वास्थ्य पर मंदारिन से कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता. सबसे अधिक संख्या वाला देश होने के कारण, भारत की भाषा हिंदी को यह स्थान मिला सकता था. दुर्भाग्य यह है कि हिंदी को अपने ही देश में ‘राष्ट्रभाषा‘ का स्थान हासिल नहीं है. अध्यक्षता करते हुए डा अशोक कुमार ज्योति ने महामना मदन मोहन मालवीय द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा का स्थान दिलाने की प्रतिबद्धता के साथ सन् 1884 में स्थापित हिंदी उद्धारिणी प्रतिनिधि मध्य सभा, काशी नागरी प्रचारिणी सभा और हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग तथा उनके द्वारा संपादित पत्रों ‘हिन्दोस्थान‘ एवं ‘अभ्युदय‘ के माध्यम से किए गए कार्यों को रेखांकित किया. उन्होंने महात्मा गांधी और एनी बेसेंट द्वारा सन् 1918 में स्थापित दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, मद्रास और राष्ट्रभाषा प्रचार समिति वर्धा के योगदानों का भी उल्लेख किया. उन्होंने विश्व भर के 200 विश्वविद्यालयों में अध्यापन की भाषा होने और करोड़ों लोगों के द्वारा बोले और व्यवहार में लाए जाने के पश्चात् भी भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी की प्रतिष्ठा नहीं होने पर उन्होंने चिंता व्यक्त की. मुख्य अतिथि डा रमेश कुमार ‘निर्मेष‘ ने अपनी काव्य-पंक्तियों ‘केवल भाषा नहीं है हिंदी, ये मेरी अभिलाषा है‘ के माध्यम से हिंदी की महत्ता बताई. उन्होंने कहा कि हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए देश के नीति-निर्माताओं को दृढ़ संकल्पित होकर कार्य करना होगा. संचालक डा धीरेन्द्र राय ने कहा कि भाषाई धरातल पर हमारा देश आज भी ठगा हुआ महसूस कर रहा है. व्यावसायिकता के इस दौर में हिंदी की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन करना एवं इसकी महत्ता को समझना आवश्यक है. धन्यवाद ज्ञापन शोधार्थी सुशांत कुमार पाण्डेय ने किया.