लखनऊ: कभी दैनिक जागरण में प्रशिक्षु पत्रकार से पत्रकारिता शुरू कर संपादक के पद तक पहुंचने वाले सुनील दुबे के निजी संस्मरणों पर आधारित पुस्तक ‘सुनील दुबे- कुसुमादपि कोमल, वज्रादपि कठोर‘ का स्थानीय सेंट जोसेफ कॉलेज में लोकार्पण हुआ. दिनेश पाठक द्वारा संपादित इस पुस्तक में 30 से अधिक संस्मरण शामिल हैं. यह पुस्तक न्यूज रूम के बाहर-भीतर एक संपादक के कामकाजी पहलुओं का संस्मरणात्मक ताना-बाना बुनती है. इस अवसर पर पुस्तक के संपादक दिनेश पाठक ने कहा कि सुनील दुबे ने अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में उत्तर प्रदेश, बिहार और दिल्ली-एनसीआर में हिंदी के कई प्रमुख अखबारों के संस्करण लॉन्च और री-लॉन्च किए थे. उनकी बनाई विभिन्न संपादकीय टीमों से निकले सौ से अधिक लोग देश की मुख्य धारा के लगभग सभी प्रमुख मीडिया ब्रांड्स में ऊंचे पदों पर पहुंचे या आज भी कार्यरत हैं. इनमें दो दर्जन से ज्यादा मीडियाकर्मी ब्यूरो चीफ, स्थानीय संपादक, कार्यकारी संपादक और संपादक तक बने. इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक नवीन जोशी, आलोक जोशी, दिनेश पाठक, अविनाश चंद्र और नागेन्द्र ने भी सुनील दुबे के साथ गुजरे-गुजारे अपने-अपने अनुभव साझा किए.
नवीन जोशी ने कहा कि सुनील दुबे का सानिध्य नहीं मिला होता तो संपादक नहीं बना होता. लेखक नागेन्द्र ने कहा कि उनकी सबसे बड़ी खूबी उनका संपादकीय प्रबंधन था. ब्रजेश शुक्ला ने कहा कि वो अपने स्टाफ को परिवार की तरह मानते थे, काम में कमी हो तो डांटते थे. सुनीता ऐरन ने कहा कि मैं जब समाचार संपादक थी तब मेरी सबसे ज्यादा मदद दुबे जी ने की. आलोक जोशी ने कहा कि मैंने उनके साथ काम नहीं किया लेकिन उनके किस्से बहुत सुने हैं.
इस अवसर पर सुनील दुबे की पत्नी मंजू दुबे, बहन साधना और शिखा ने भी अपनी भावनाएं व्यक्त कीं. याद रहे कि सुनील दुबे ने ‘दैनिक जागरण‘ में ट्रेनी के रूप में शुरुआत की और अच्छे काम के चलते छह माह में ही स्टाफर बना दिए गए. सात साल के अंदर ही वह वहां समाचार संपादक के पद तक पहुंच गए. इसके बाद पटना ‘हिन्दुस्तान‘ में स्थानीय संपादक बनाए गए. फिर ‘दैनिक जागरण‘ दिल्ली के संपादक बने. इसके बाद ‘राष्ट्रीय सहारा‘ के लखनऊ संस्करण के लॉन्चिंग एडीटर बने. इसके बाद ‘हिन्दुस्तान‘ पटना, दिल्ली और सेवानिवृत्त होने तक फिर पटना में बने रहे.