नई दिल्ली: एक समाज की वैचारिकी उसकी अपनी भाषा में ही सर्वोत्तम रूप में विकसित हो सकती है. अपने समाज के व्यापक बौद्धिक विकास के लिए अपनी भाषा के महत्त्व को समझना जरूरी है. ताकि समाज को पीछे धकेलने वाली किसी भी परिस्थिति का न केवल मुकाबला किया जा सके बल्कि समाज को आगे भी बढ़ाया जा सके. 'सामाजिकी' का प्रकाशन इसी दिशा में एक जरूरी कदम है. गोविन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान और राजकमल प्रकाशन द्वारा संयुक्त रूप से प्रकाशित त्रैमासिक शोध-पत्रिका 'सामाजिकी' के प्रवेशांक के लोकार्पण पर वक्ताओं ने यह बात कही. राजधानी के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर एनेक्स में आयोजित लोकार्पण कार्यक्रम में राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने कहा कि हम यह महसूस करते हैं कि विविधताओं से भरे और सामासिकता में पगे हमारे देश और समाज में, लगातार हो रहे बदलावों को सुसंगत, रचनात्मक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखना-समझना जरूरी है. आशा है कि 'सामाजिकी' इसमें सहायक होगी. पत्रिका के सम्पादक और गोविन्द बल्लभ पन्त सामाजिक विज्ञान संस्थान के निदेशक बद्री नारायण ने कहा कि 'सामाजिकी' अपना समाज, अपना ज्ञान और अपनी भाषा की पुनः प्राप्ति का एक प्रयास है. आलोचक-अनुवादक प्र.टी.वी. कटीमनी ने कहा कि भारत और भारतीयता को समझने के लिए अपनी भाषा में शिक्षा का होना बहुत जरूरी है. हिंदी में 'सामाजिकी' का प्रकाशन, इस सन्दर्भ में स्वागत योग्य है.
इतिहासकार सुधीरचन्द्र ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में अंग्रेजी का जिक्र करते हुए कहा कि उससे आक्रान्त होने के बजाय हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में काम करना जरूरी है. प्रो संतोष मेहरोत्रा ने कहा कि अगर हम समाज को विमर्श से जोड़ना चाहते हैं तो हमें उसकी बौद्धिक-शैक्षिक समस्याओं देखना होगा. प्रो राजीव भार्गव ने कहा कि हमारे सामाजिक परिवेश, सोच, भाव और अभिव्यक्ति के बीच गहरा रिश्ता होता है. अगर हम अपने समाज को समझना चाहते हैं और उस तक अपनी बात ले जाना चाहते हैं तो हमें अपनी भाषा के महत्त्व को समझना पड़ेगा. प्रो विधु वर्मा ने कहा कि जो भाषा रोजगार से जुड़ी होती है लोग उसमें ज्यादा रुचि लेते हैं. उन्होंने कहा, भाषा और बाजार का मसला काफी जटिल है. प्रो राजन हर्षे ने कहा कि किसी भी समाज के लिए उसकी भाषा का महत्त्व असंदिग्ध है. अपनी भाषा न हो तो यथार्थ को समझना आसान नहीं होगा. हमें सच को समझने, उसका साथ देने की जरूरत है. आज हमने सच को मानो छुट्टी दे दी है. जबकि हमें असत्य के साथ शत्रुता करनी चाहिए न कि सत्य के साथ. अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में आशीष नन्दी ने कहा कि 'सामाजिकी' का प्रकाशन सराहनीय है. उन्होंने कहा कि हर भाषा अपने साथ एक विश्वदृष्टि रखती है. इसलिए एक भाषा के लुप्त होने का मतलब एक विश्वदृष्टि का खत्म हो जाना है. उन्होंने कहा कि किसी भाषा का विरोध तब होने लगता है जब उसे राजनीतिक हथियार बनाया जाता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हिंदी न केवल मातृभाषा है बल्कि राजभाषा भी है. राजकमल के संपादकीय निदेशक सत्यानन्द निरुपम ने कहा कि इस शोध-पत्रिका का प्रकाशन अपने समाज को बौद्धिक तौर पर सक्षम-सजग बनाए रखने का एक उपक्रम है.