[कुमार अजय, वाराणसी] शिव व शक्ति के सायुज्य का केंद्र होते हुए भी काशी कभी भारतीय जीवन धारा के वाममार्गी मूल्यों के प्रति समर्पित नहीं हो सकी, इसलिए हिंदी साहित्य की आदिकालीन प्रवृत्तियां कभी भी यहां पनप नहीं सकीं। मध्यकाल के पूर्व तक यहां संस्कृत का ही बोलबाला था। उस समय यहां वर्चस्व भी संस्कृत के उद्भटों का ही था। इस ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंकने की पहली चेष्टा गोस्वामी तुलसीदास ने की, इसलिए उन्हें संस्कृत के पंडितों का कोप भी झेलना पड़ा। काशी के सांस्कृतिक मन के अंदर गहरी जड़ें सनातन परंपरा की ही थी। अतएव जैन, शाक्य, नाथ, योगी यहां तक कि बौद्ध धर्म की चुनौतियों के बाद भी केवल सनातन जीवन दर्शन ही यहां साहित्य सृजन का प्राण तत्व बना रहा। यह बात और कि मध्य काल में ही यहीं के कबीर से बड़ा विद्रोही और कोई नहीं हुआ। 

आधुनिक काल में भारतेंदु व प्रेमचंद ने कबीर के विद्रोह से उपजे नए मूल्यों को भी आदि से जोड़े रखते हुए समन्वित साहित्य सर्जना की रीति प्रतिष्ठित किया। हिंदी की हिंदी की सुर्खी को और चटख रंग देने की गरज से वर्ष 1893 में स्थापित काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने हिंदी साहित्य सर्जकों को अपने प्रयासों से एक विस्तृत फलक प्रदान किया। इसका श्रेय सभा की संस्थापनत्रयी डा. श्यामसुंदर दास, पं. रामनारायण मिश्र व डा. शिवकुमार के अलावा राधाकृष्ण दास के नाम भी अंकित होता है। राधा बाबू को सभा की स्थापना के एक वर्ष बाद संस्था का सभापति चुना गया और निधन (1907) के पूर्व तक लगभग 15 वर्ष तक में हिंदी के उन्नयन की कोशिशों के साथ अपने पद का निर्वहन करते रहे। इन्हीं के प्रयत्नों से वर्ष 1896 में नागरी प्रचारिणी सभा ने अपने नाम से ही एक त्रमासिकी का प्रकाशन शुरू किया। इसका आकार पौने नौ इंच गुणा साढ़े पांच इंच हुआ करता था। इसका वार्षिक मूल्य रखा गया था मात्र डेढ़ रुपया और इसके संपादक हुए बाबू श्यामसुंदर दास बीए। पत्रिका को पाठक मिले तो वर्ष 1907 में इसे मासिक कर दिया गया। इसके संपादक मंडल में नए नाम जुड़े आचार्य रामचंद्र शुक्ल, रामचंद्र वर्मा तथा बेनी प्रसाद जैसे साहित्य सेवी। 1920 में यह पत्रिका फिर त्रमासिक हो गयी। इसका आकार भी बदलता रहा। साहित्यिक लेख आदि के अलावा इसमें भाषा, अनुसंधान और समालोचना को भी विषय वस्तु के रूप में स्थान मिलता रहा। आगे चलकर प्रयत्नों को और प्रभावी बनाने की दृष्टि से सभा ने नागरी प्रचारिणी ग्रंथ माला का प्रकाशन प्रारंभ किया। इससे हिंदी के विस्तार को एक खुला आकाश प्राप्त हुआ। इसी से प्रेरित होकर उसी साल फ्रीमेन एंड कंपनी भाषा चंद्रिका का प्रकाशन शुरू किया। उसके संपादक थे हरे कृष्ण दास। इसके बाद तो मानो तांता लग गया हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन का लेखकों की नई कतार खड़ी हुई प्रकाशनों में रामभरोसे शर्मा चतुर्वेदी की मासिक काव्य सुधा निधि बाबू देवकीनंदन खत्री व माधव प्रसाद मिश्र की दर्शन शास्त्रीय पत्रिका सुदर्शन के प्रकाशन से हिंदी साहित्य रचने का फलक लगातार विस्तार पाता गया।