ब्लॉगर, ट्रेवलर, लेखक व फोटोग्राफर उमेश पंत ने हिमालय के ओम पर्वत, आदि कैलाश आदि पर्वतों की लगातार १८ दिनों तक पैदल यात्रा की और हिंदी में चर्चित किताब लिखी 'इनरलाइन पास। इनका पहला आलेख इन दिनों युवाओं के बीच यात्रा कर लिखने का चलन तेजी से बढ़ा है। यह चलन हिंदी में तो कम ही नजर आ रहा है। अनुराधा बेनीवाल, अनिल कुमार यादव, अजय सोडानी, नीरज मुसाफिर, रामजी तिवारी, कायनात काजी आदि कुछ ही लेखकों के यात्रा वृत्तांत पिछले कुछ सालों में आए हैं। इसमें सोशल मीडिया की अहम भूमिका है। लोग एक-दूसरे की देखा-देखी यात्राएं तो कर रहे हैं, लेकिन बढिय़ा लेखन सामने नहीं आ रहा। हर यात्री लेखक नहीं हो सकता। यदि आप अपनी यात्राओं का गंभीरता से डॉक्यूमेंटेशन कर रहे हैं, तो इनका महत्व ऐतिहासिक होगा। उमेश पंत से जागऱणहिंदी के लिए स्मिता ने बातचीत की

 

– यात्रा के लिए लेखक के पास पैसा और जुनून कहां से आता है?

ज्यादातर यात्राएं लेखक अपने पैसे से ही करते हैं। हां कुछ यात्राएं स्पोंसर्ड भी होती हैं। हिंदी के लेखक के लिए यह एक ख़ूबसूरत सपना हो सकता है कि उसकी यात्रा का खर्च कोई और उठाए। यात्राओं के लिए जुनून तो एक ऐसा रस है, जिसे एक बार चख लेने के बाद बार-बार चखने का मन करता है।

 – हिंदी में लिखकर खाना-कमाना कितना कठिन है?

मैंने अभी तक हिंदी से ही कमाया-खाया है। हिंदी मीडियम से पढ़े-लिखे होने के बावजूद नौकरी में अब तक भाषा कभी आड़े नहीं आई। पढ़ाई के दौरान मैं हिंदी अखबारों के लिए लिखकर अपनी पॉकेटमनी निकालता। अपनी पहली नौकरी 'बालाजी टेलीफिलम्स के लिए हिंदी में लिखने की वजह से मुझे कभी कोई दिक्कत नहीं हुई। जहां आप अटकते हैं, वहां हिंदी का सहारा लेना मुंबई में बुरा नहीं माना जाता। हां हिंदी लिपि से समस्या जरूर थी, क्योंकि प्रोडक्शन के कई लोग हिंदी लिपि के साथ सहज नहीं होते थे। एक साल बाद मशहूर किस्सागो और गीतकार नीलेश मिसरा से जुडऩा हुआ, तो वहां लिपि की ये बाधा भी नहीं रही। इसी भाषा की बदौलत मुंबई में पूरे चार साल आसानी से बीत गए। अपने व्यक्तिगत अनुभवों से कहूं, तो हिंदी में लिखकर एक सम्माजनक जिंदगी जी जा सकती है, बस थोड़ा पेशेवर होना जरूरी है।

– आपको कब लगा कि लेखक बनना है?

पहली बार छठी या सातवीं क्लास में कारगिल युद्ध पर पहली कविता लिखी, जिसे घर और स्कूल में तारीफ मिली।  मेरा पहला आलेख दैनिक जागरण में ही स्थानीय गुफा 'पाताल भुवनेश्वर पर बिना किसी काट-छांट के सभी संस्करणों में छपा। घर में मां-पापा और बहन कंचन पंत की देखा-देखी मुझे भी पढऩे-लिखने का शौक हो गया। मेरे दोस्त भी पढऩे-लिखने में रुचि रखते थे। दोस्तों के साथ मिलकर 'अभिलाषा-एक प्रयास नाम से एक ग्रुप भी बनाया, जो उस छोटे से कस्बे में साहित्यिक गतिविधियों का एक अकेला मंच बनकर उभरा। यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के दौरान देश-विदेश के नामी साहित्यकारों को पढऩे का अवसर मिला। 

 – शरीर के साथ-साथ अंतर्मन में होने वाली यात्रा कैसी होती है?

दरअसल, एक जगह से दूसरी जगह जाने में शरीर के साथ-साथ मन भी यात्राएं कर रहा होता है। यात्रा के दौरान आपको अपने भीतर बैठे एक ऐसे शख्स से मुलाकात होती है, जिसे अब तक आपने ठीक से जाना तक नहीं था। आप जितनी ज्यादा यात्राएं करते हैं आप उस शख्स यानी ख़ुद को उतने करीब से जानने लगते हैं। तब आपमें यह समझ विकसित होने लगती हैं कि यात्राओं का असल मकसद सिर्फ स्थान को देखभर आना नहीं है, बल्कि ख़ुद से मिल आने का यह एक जरिया भी है। ख़ुद से मिल आने की यह यात्रा अंतर्मन की यात्रा है।

 – पहाड़ के लोगों के लेखन में पहाड़ कितना समाया हुआ है?

 पहाड़ हर पहाड़ी का नॉस्टेलजिया होता है। वह चाहे कहीं चला जाए पहाड़ उसके भीतर से नहीं जाता। दरअसल, पहाड़ी लोगों का जीवन आज भी प्रकृति के बहुत करीब है। शहरों में तो खेतों से फल-सब्जी तोड़कर खाने जैसा कोई भी अनुभव आपको नहीं मिल पाता है, लेकिन पहाड़ों पर ऐसे अनुभव आपको प्रकृति एकदम नि:स्वार्थ होकर देती है। इससे प्रकृति से एक गहरा रिश्ता ख़ुद-ब-ख़ुद कायम हो जाता है। और फिर उनकी फिक्र उनके लेखन में भी दिखने लगती है।

 – आपका ब्लॉग भी काफी चर्चित है।

ब्लॉगिंग की दुनिया के अनुभव काफी रोचक रहे हैं। जब मैं दिल्ली आया था, तो उन दिनों हिंदी में ब्लॉगिंग का चलन बस शुरू हो रहा था और मुझे कंप्यूटर तक चलाना नहीं आता था। मैंने पहले इंटरनेट का इस्तेमाल करना सीखा फिर धीरे-धीरे ब्लॉगिंग की शुरुआत हुई। जब मैंने 'नई सोच' नाम से एक ब्लॉग शुरू किया, तो उसको तारीफ मिली। मैंने जब मुंबई डायरी लिखनी शुरू की, तो पहली बार मशहूर गीतकार और किस्सागो नीलेश मिसरा के कार्यक्रम पर लिखा। उसी को पढ़कर नीलेश जी ने मिलने बुलाया। फिर उनके साथ रेडियो के लिए कहानी लिखने का सफर शुरू हुआ। फिलहाल 'गुल्लक नाम से एक निजी वेबसाइट चला रहा हूं, जिसमें मेरी कविताएं, कहानियां, डायरियां, फिल्म समीक्षाएं आदि शामिल हैं। हाल ही में यात्राओं पर 'यात्राकार नाम से एक नई वेबसाइट शुरू की है, जिसमें देशभर के यात्रा लेखकों के वृत्तांत और यात्रा से जुड़े अनुभव शामिल रहेंगे।

 

– नीलेश मिसरा के लिए कहानियां लिखने के अनुभव बताएं. 

जिन दिनों मैं मुंबई गया उन दिनों नीलेश मिसरा अपने रेडियो शो 'यादों का इडियट बॉक्स के लिए लेखकों की तलाश कर रहे थे। हम कई लिखने वाले जुड़े और हम सभी नीलेश जी के घर पर हर सोमवार मिलने लगे। वहां सब एक-दूसरे की कहानियों पर अपनी राय देते। कहानी लिखना, उसका तुरंत लोगों तक पहुंचना और उससे मुंबई में रहने लायक पैसे भी मिल जाना। लेखकों के लिए ये एक आदर्श माहौल-सा बन गया था। हमने इसे 'मंडे मंडली नाम दे दिया था।  

– फिल्म पर लेखन का चस्का किस तरह लगा?

उत्तराखंड में मेरे गृहनगर गंगोलीहाट में आज भी कोई सिनेमाघर नहीं है। दिल्ली आने पर ही फिल्म देखी। जामिया के मास कम्यूनिकेशन रिसर्च सेंटर में हमें देश-विदेश की कई फिल्में दिखाई जातीं और उनपर चर्चाएं होतीं। इससे यह समझ विकसित हुई कि फिल्मों की दुनिया इंसान की जटिल भावनाओं को समझने का एक जरिया है। तभी उन पर लिखना भी शुरू किया। 

 -आप खुद एक बढिय़ा ब्लॉगर या फिल्म समीक्षक या लेखक या यात्री कहलाना पसंद करते हैं। 

मैं हर विधा में लिखने की कोशिश करता हूं। टैग तो पाठक ख़ुद ही दे देते हैं। इसमें आपकी पसंद, नापसंद बहुत मायने नहीं रखती। इसके अलावा तस्वीरें खींचना भी मुझे बहुत पसंद है। मैंने अपनी कमाई से पहली बार सबसे महंगी चीज डीएसएलआर कैमरा ही खरीदा। मुझे खाना बनाना भी बहुत पसंद है।

 

– इन दिनों कोई भी प्रेमचंद के समान कथाकार नहीं बन पा रहा है। 

आज के कथाकारों की प्रेमचंद से तुलना करना ठीक वैसा ही है जैसे आज के कनॉट प्लेस की तस्वीर खींच कर १९५० के कनॉट प्लेस की तस्वीर से तुलना करना। प्रेमचंद के समय और समाज में उनकी व्यक्तिगत स्थिति ने उनके लेखन को एक स्वरूप दिया। आज के लेखक का परिवेश और सामाजिक ताना-बाना बिल्कुल अलग है। प्रेमचंद शायद इसलिए कालजयी हैं, क्योंकि अपने समाज को देख पाने की उनकी नजर बहुत पैनी थी और उनकी सोच अपने वक्त से बहुत आगे की थी।

 

इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं

मुझे जादुई यथार्थ से जुड़ी कहानियां बहुत पसंद हैं। इन दिनों मैं अपने पसंदीदा लेखकों में से एक हारूकी मुराकामी का लिखा 'काफ्का ऑन दि शोर पढ़ रहा हूं। मोपासांसत्यजीत राय की कहानियों के अलावा, मनोहर श्याम जोशी, निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल, उदय प्रकाश आदि मेरे पसंदीदा लेखक हैं।   

 – पहले की अपेक्षा युवा लेखकों में आपसी प्रतिस्पर्धा  न के बराबर दिखती है।  

पहले साहित्य में खेमेबाजी ज्यादा थी। इसलिए प्रतिस्पर्धा वाली भावना थी, जो सकारात्मक नहीं थी। सोशल मीडिया के कारण अब हर तरह के लिखने वालों के लिए एक अलग पाठक समूह है, भले ही उसका दायरा सीमित हो। अब पाठकों तक पहुंचने के लिए लेखकों को साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं का मोहताज नहीं रहना पड़ता। इसलिए प्रतिस्पर्धा का कोई सवाल नहीं है। प्रतिस्पर्धा से ज्यादा जरूरी है एक-दूसरे से सीखते हुए आगे बढऩा।

 

– रोचक ट्रैवलॉग लिखने के लिए किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए?

आप अपने आस-पास की हर चीज पर पैनी निगाह रखें और उसे महसूस करें। हर चीज को देखकर सवाल करने की बच्चों वाली दृष्टि और बड़ों वाली सोच का समायोजन अच्छा लिखने में बड़ा काम आता है। स्थानीय लोगों से ख़ूब सारी बातें करें। जहां आप गए हैं वहां की कला-संस्कृति, रहन-सहन की जानकारियां और चित्र अपने जेहन में जमा करते रहें और अनुभवों का खाका कागज पर उतारते रहें। पुराने यात्रा वृत्तांत जरूर पढ़ें। इब्ने बतूता, बरनीयर, निकितिन अफनासी से लेकर निर्मल वर्मा, यशपाल, अज्ञेय, राहुल सांकृत्यायन, अनिल कुमार यादव को भी पढ़ें। इससे आपको अपने अनुभवों को समेटने और उन्हें शब्दों में ढ़ालने की दृष्टि मिलेगी। अपने शब्दों के जरिए दृश्यों को दिखाने की कला जिसे अंग्रेजी में विज़ुअल राइटिंग कहते हैं, यात्रा वृत्तांत लिखने के लिए बहुत जरूरी है।