चेन्नई: स्थानीय दीक्षांत मंडपम में काशी-वाराणसी विरासत फाउंडेशन द्वारा आयोजित ‘भारत: साहित्य एवं मीडिया महोत्सव‘ के दूसरे दिन के विचार-सत्रों में गहन विचार विमर्श हुआ. ‘भारतीय साहित्य में भारतीयता के मूल्य- साहित्य संचार की वैश्विक दशा और दिशा‘ शीर्षक सत्र की अध्यक्षता पंजाब केंद्रीय विश्वविद्यालय, बठिंडा के एसोसिएट प्रोफेसर-पत्रकारिता डा किंशुक पाठक ने की. उन्होंने मीडिया और साहित्य दोनों की लोकतंत्र में अपरिहार्यता पर बात करते हुए कहा कि साहित्य को लोक तक पहुंचाने में मीडिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका है. दोनों ही समाज को चिंतन का धरातल देते हैं, जीवन को कैसे बेहतर बनाया जाए इसके बारे में भावभूमि तैयार करते हैं. इसलिए भाषा की गरिमा का ध्यान रखा जाना जरूरी है. इस सत्र के मुख्य वक्तव्य डा रंजन सिंह ने दिया. अन्य वक्ताओं में जीडी दुबे, बसवराज बारकेर, डा अनुराधा गोस्वामी, डा शिवम उपाध्याय, डा बी संतोषी कुमारी, डाक्टर विनय कुमार सिन्हा, राजेश कुमार गौतम शामिल थे. संचालन शोधार्थी भावना गौड़ ने किया. ‘मीडिया, लोकतंत्र और साहित्य: चुनौतियां, खतरे और दायित्व‘ सत्र की अध्यक्षता डा ऋषभदेव शर्मा ने की. उन्होंने कहा कि देखना होगा कि हम अपने लोकतंत्र को कहीं भीड़तंत्र में तो नहीं बदल रहे. मीडिया नैरेटिव सेट करता है, इस पर विमर्श की जरूरत है. अब ‘वसुधैव कुटुंबकम‘ ‘वसुधैव बाजारम‘ में बदल गया है. उन्होंने इस बात पर जोर दिया की जनता और सत्ता के बीच सेतु साहित्य भी है और मीडिया भी. लेकिन अब पत्रकारिता मीडिया है और वह मिशन नहीं, प्रोफेशन है. ऐसे समय में निष्पक्ष बने रहने की कड़ी चुनौती मीडिया के सामने है. उसके मानदंड खिसक रहे हैं.
उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के निदेशक आरपी सिंह ने कहा कि आज का मीडिया पुरानी पत्रकारिता से अलग है. पत्रकारिता में सिद्धांत होते थे, जिम्मेदारी होती थी, दायित्व बोध होता था, जबकि आज के मीडिया में एक प्रोफेशनलिज्म है. सोशल मीडिया के चलते आज हम सभी मीडिया के भाग हैं, लेकिन पत्रकारिता के भाग नहीं हैं. पत्रकारिता की चुनौती पत्रकार के रूप में अपना वजूद बनाए रखने की भी है. सही खबरें देकर निष्पक्ष कैसे रहेंगे यह भी पत्रकारिता की एक बड़ी चुनौती है सोशल मीडिया ने पत्रकारिता का पूरा चेहरा और चरित्र बदल दिया है. इस सत्र को दिनेश पांचाल, मनोज मिश्र, अंजनी कुमार झा, नित प्रिया प्रलय, डा आकाश शा ने भी संबोधित किया. संचालन डा नीरजा ने किया. इस सत्र में दो शोधार्थियों पूजा पाराशर और ललिता ने अपने शोध पत्रों के सार भी प्रस्तुत किए. अंतिम विचार सत्र सुब्रह्मण्य भारती और बाल शोरि रेड्डी के साहित्य, स्वतंत्रता संग्राम और पत्रकारिता में योगदान पर केंद्रित था. इसकी अध्यक्षता कालीकट विश्वविद्यालय हिंदी विभाग के अध्यक्ष डा प्रमोद कोवाप्रत ने की. उन्होंने सुब्रमण्य भारती को उत्तर और दक्षिण का सेतु बताया. उन्होंने कहा कि बालशौरि रेड्डी ने महात्मा गांधी से प्रभावित होकर हिंदी सीखी. उन्होंने तेलुगु से हिंदी में अनुवाद के बहुत काम किए, जिनमें 200 कहानियां और एक दर्जन उपन्यास शामिल हैं. बाल पत्रकारिता में भी उनका योगदान अप्रतिम था. इस सत्र के मुख्य वक्ता डा दिलीप धींग, जो प्राकृत भाषा के अध्येता हैं, ने कहा कि प्राकृत और तमिल का संबंध है, उधर हिंदी और प्राकृत का भी गहरा संबंध है. ऐसे में प्राकृत ने दोनों के साहित्य के मध्य एक सेतु का काम किया है और उत्तर व दक्षिण को जोड़ा है. इस सत्र में डा राजलक्ष्मी कृष्णन, डा पूर्णिमा श्रीनिवासन, डा पुष्पा एल ने भी अपने विचार रखे. संचालन भुवनेश्वरी श्रीनिवासन ने किया. समापन विजया चामुंडेश्वरी द्वारा प्रस्तुत सुब्रह्मण्य भारती की तमिल कविता से हुआ. संयोजन एवं आभार प्रदर्शन महोत्सव के अकादमिक संयोजक कमलेश भट्ट कमल ने किया. अतिथियों का स्वागत और सम्मान फाउंडेशन के उपाध्यक्ष शरद कुमार त्रिपाठी द्वारा किया गया.