नई दिल्ली: साहित्य अकादमी ने कृष्णा सोबती की स्मृति में एक बड़ी शोक सभा का आयोजन किया, जिसमें शामिल लेखकों ने उनकी यादें ताजा कर उन्हें श्रद्धांजलि दी. इस मौके पर लेखिका सुकृता पॉल कुमार ने कहा कि कृष्णा सोबती ने जो भी लिखा, उसे हमें बूँद-बूँद की तरह धीरे-धीरे समझने की जरूरत है. उन्होंने अपनी सूक्ष्म दृष्टि से जो भी महसूस किया, उसे महाकाव्यात्मक दृष्टि देकर सृजित किया. वे अपने हर उपन्यास के लिए भाषा और विषय बदलती थीं. उन्होंने हर स्तर के 'स्टैब्लिशमेंट' का विरोध किया. मंगलेश डबराल ने कहा कि वे हिंदी या कहें भारत के कुछ गिने-चुने विश्वस्तरीय लेखकों में थीं. उनके सरोकार भी उनके लेखन जैसे बड़े थे. उनके स्त्री पात्र स्नेह या दया के नहीं, बल्कि अपने आप में जुझारू योद्धा थे. उन्होंने लेखन के साथ-साथ एक नागरिक की ज़िम्मेदारी क्या-क्या होनी चाहिए, उससे कभी भी मुँह नहीं मोड़ा. तीसरी दुनिया के लेखकों को किस तरह का होना चाहिए वे इसका आदर्श उदाहरण थीं.
मृदुला गर्ग ने उनकी स्मृति को नमन करते हुए उनकी विनोद वृत्ति के कई संस्मरण सुनाए और कहा कि उनकी लेखनी में उत्सवधर्मिता थी. उनकी भाषा स्त्रीत्व की भाषा थी. वे लेखन के लिए हर बार नए मुहावरे ईजाद करती थीं. गंगा प्रसाद विमल ने कहा कि उन्होंने हिंदी में एक बड़े लेखक होने की जरूरत को पूरा किया. रवींद्र त्रिपाठी का कहना था कि एक कथा लेखिका होने के बावजूद उन्हें हिंदी कविता का बेहद गहन और विस्तृत ज्ञान था और वे कविता की केवल सुधी पाठक या गहरी आस्वादक ही नहीं, बल्कि विचारक एवं आलोचक थीं. उनको एक 'सिटीजन राइटर' के रूप में याद किया जाना जरूरी है. ज्योतिष जोशी ने कहा कि उन्होंने स्त्री को पुचकारा या सहलाया नहीं, बल्कि उसे ऐसी हैसियत दी कि वे पुरुषों से आमने-सामने मुकाबला कर सकें. जो उन्होंने लिखा उसी रूप में जीकर भी उन्होंने समाज के सामने अनोखी मिसाल रखी. अंत में साहित्य अकादमी के सचिव के. श्रीनिवासराव ने शोक-प्रस्ताव प्रस्तुत किया और इसके बाद दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजलि अर्पित की गई. श्रद्धांजलि सभा में सौमित्र मोहन, राजेंद्र उपाध्याय, ब्रजेंद्र त्रिपाठी तथा कृष्णा सोबती की भतीजी सहित कई महत्त्वपूर्ण लेखक, विद्यार्थी एवं प्रकाशक शामिल थे.