विश्वदीपक त्रिपाठी जागरण गोरखपुर: जागरण संवादी के चौथे सत्र में संविधान और जाति व्यवस्था विषय पर आयोजित विमर्श के केंद्र बिंदु में समाज रहा। परिचर्चा के दौरान यह बात उभर कर सामने आई कि समाज को सशक्त बनाकर ही जाति व्यवस्था और उसमें व्याप्त रूढ़ियों को समाप्त किया जा सकता है। समता मूलक व समावेशी समाज ही जाति जैसी अप्राकृतिक संस्था को निष्प्रभावी कर सकता है। शहरीकरणऔद्योगिकरणआर्थिक उन्नति व शैक्षणिक आधार जाति के कुप्रभावों को समाप्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं । शनिवार को बाबा गंभीरनाथ प्रेक्षागृह में आयोजित कार्यक्रम में सत्र का संचालन करते हुए गोरखपुर विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग के सहायक आचार्य डा. महेंद्र सिंह ने कहा कि जाति हमारे देश का सामाजिक और राजनीतिक यथार्थ है। इस पर चर्चा भी समाज की परिपक्वता को दिखाता है। जातिगत व्यवस्था को समाप्त करने के कौन महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैंपरिचर्चा में शामिल राजनीति विज्ञान विभाग के आचार्य प्रो. गोपाल प्रसाद ने कहा कि संविधान में जो प्रविधान किए गए हैंउससे हम समता मूलक व समावेशी समाज की ओर बढ़ रहे हैं। डा.आंबेडकर कहते थे कि ऐसे समाज की जरूरत हैजहां सामाजिक समरसता हो। डा. आंबेडकरराहुल सांकृत्यायन व डा. लोहिया ने कहा है कि जाति व्यवस्था से ना तो समाज का भला हो सकता हैऔर ना ही राष्ट्रभक्ति आ सकती है। समाजशास्त्री प्रो.सुभी धुसिया ने परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए कहा कि हमने संविधान को तो अपना लियालेकिन संवैधानिक मूल्यों को नहीं अपना पाए। जिससे हम जाति की उन बुराइयों को दूर नहीं कर पाएजो पहले से चली आ रहीं हैं। अंतरजातीय विवाह को अब तक सामाजिक मान्यता नहीं मिल सकी है। उच्च और निम्न वर्ग आपस में अलग-अलग समूह बनाए हैं। इसी के चलते आनर किलिंग की घटनाएं भी सामने आ रहीं हैं। संविधान बनाने वालों ने सबके लिए सुविधाएं दी हैं। संविधान के अनुरूप समाज बनाने की पहल राजनीतिक दलों को करनी चाहिए। परिचर्चा को आगे बढ़ाते हुए डा. महेंद्र सिंह ने कहा कि क्या जाति आधारित राजनीति समाज के लिए हानिकारक साबित हो रही हैक्या ऐसे दल वंचित और शोषित समाज को उनका हक दिलाने में सफल रहे हैंडाक्टर निगम मौर्य ने परिचर्चा में हस्तक्षेप करते हुए कहा कि जाति की राजनीति नहीं हो रही है। वर्तमान परिदृश्य में राजनीति का जातिकरण हो गया है। जिसकी संख्या अधिक हैउन्हें सत्ता मिल रही है। इससे सभी को समान अवसर नहीं मिल पा रहा है। संविधान में जाति की बात नहीं अस्पृश्यता व आरक्षण की बात की गई है। डा. आंबेडकर ने अपनी पुस्तक में लिखा कि अस्पृश्यता में कमी आई हैलेकिन अभी बहुत कुछ किए जाने की आवश्यकता है। डा. गोपाल प्रसाद ने कहा कि कहीं ना कहीं राजनीतिक दल भी जातिगत खाई को आगे बढ़ा रहे हैं। उनका टिकट वितरण भी जाति के आंकडों को देखकर होता है। हम विकसित भारत का सपना लेकर आगे बढ़ रहे हैं। जहां जातिगत मुद्दे पीछे छूट जाते हैं। एक पक्ष ऐसा भी हैजो यह सोचता हैकि जब तक सभी लोगों को समान अवसर नहीं मिल जाता तब तक हम आगे नहीं बढ़ सकते। इसपर प्रो.सुभी धुसिया ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि वर्तमान व्यवस्था में कुछ लोग योग्यता को एक खास वर्ग तक सीमित मानते हैं। वह काम को नहीं जाति को महत्व देते हैं। उसी आधार पर ग्रुप बनाते हैं। वह समाज कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता जो योग्यता को महत्व नहीं देता। आप गलत के साथ इस आधार पर खड़े हैं कि वह आप की जाति का है। हमें शिक्षा में संविधान को भी शामिल करने की आवश्यकता है। जब शुरू से ही बच्चे अपने संविधान को पढ़ेंगे तो निश्चित रूप से परिवर्तन दिखाई देगा। बदलाव के लिए समाज को भी पहल करनी होगी। परिचर्चा में यह बात भी उभर कर सामने आई की जाति आधारित राजनीति इस स्तर तक पहुंच गई है कि जातियों का उप वर्गीकरण हो गया है। प्रो. धुसिया ने कहा कि जाति आधारित संगठन का बहिष्कार समाज को करना चाहिए। ऐसे लोग एक आंख से दुनिया देखना चाहते हैं। सत्र के दौरान प्रबुद्ध जनों ने भी विषय से जुड़े कई प्रश्न पूछे। जिसका मंचासीन अतिथियों ने जवाब देते हुए उनकी जिज्ञासा को शांत किया।