नई दिल्ली: पिछले सात दशक से भी अधिक समय से हिंदी की चर्चित त्रैमासिक पत्रिका ‘आलोचना‘ अब डिजीटल संस्करण में भी उपलब्ध होगी. आलोचना के पुराने अंकों के लेखों के साथ इसकी वेबसाइट पर नई पाठ्य सामग्री भी उपलब्ध होगी. प्रकाशकों का दावा है कि इस पहल से आलोचना के लेख और पाठ्य सामग्री तक पाठकों की पहुंच और भी आसान हो जाएगी. राजकमल प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी के मुताबिक, ‘आलोचना पत्रिका की शुरुआत 1951 में सभ्यता-समीक्षा की एक वैचारिक मुहिम के तौर पर की गई थी. इस पत्रिका के पहले संपादक आलोचक शिवदान सिंह चौहान थे. आलोचक-चिंतक नामवर सिंह भी लंबे समय तक आलोचना से जुड़े रहे. इन सात दशकों के दौरान आलोचना के अनेक ऐसे विशेषांक निकले जो अविस्मरणीय हैं. वर्तमान में प्रोफेसर संजीव कुमार और प्रोफेसर आशुतोष कुमार आलोचना के संपादक हैं. आलोचना आनलाइन भी इन्हीं के संपादन में आगे बढ़ेगी. आशुतोष कुमार के अनुसार, हिन्दुस्तानी समाज के साहित्यिक दायरे के वैचारिक केंद्रक के रूप में आलोचना पत्रिका के 72 साल पूरे हो चुके हैं. अब पहली बार आलोचना आनलाइन आ रही है जो हिंदी-उर्दू के दुनिया भर के लेखकों-पाठकों को एक जीवंत साझा मंच मुहैया करेगी. खास तौर पर इसका मकसद युवा पीढ़ी की रचनाशीलता और बौद्धिकता को संबोधित और संगठित करना है. मानव जाति के लोकतांत्रिक और समतावादी स्वप्न को नया आवेग देने के लिए ऐसा करना जरूरी लगता है.
संजीव कुमार के मुताबिक हिंदी की दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो लैपटाप और मोबाइल के स्क्रीन से हटकर प्रिंट की दिशा में कम ही जाते हैं. इसीलिए अक्सर किसी लिंक या पीडीएफ़ की मांग सोशल मीडिया पर देखने को मिलती है. दूसरी तरफ़ वेब और सोशल मीडिया से बिल्कुल अछूते रह गए लोगों का भी एक तबका है. आप किसी पत्रिका को प्रिंट से हटाकर वेब में ले जाने की बात करें तो ऐसा कहने वाले कई लोग मिलेंगे कि ‘फिर हमारा क्या होगा?’ इन दोनों तरह के तबकों को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी लगा कि ‘आलोचना‘ त्रैमासिक को प्रिंट में बनाए रखते हुए भी इसका एक ऐसा वेब पोर्टल तैयार किया जाए जहां इस त्रैमासिक की नई-पुरानी पठनीय सामग्रियों को साझा किया जाए; साथ ही, ऐसी अप्रकाशित सामग्री भी साझा की जाए जिसके लिए त्रैमासिक की अपनी आवृत्ति का इंतजार नहीं किया जा सकता. ‘आलोचना आनलाइन‘ इसी जरूरत को पूरा करने की दिशा में एक कोशिश है. ऐसी कोशिशों की अपनी निहित, अप्रकट संभावनाएं भी होती हैं जो समय के साथ खुद अपनी राह तलाश लेती हैं. ऐसी संभावनाएं अभी हमारे लिए भी अप्रकट ही हैं. जो बात एकदम स्पष्ट है, वह यह कि ‘आलोचना‘ त्रैमासिक की अपनी समृद्ध परंपरा के पास अनगिनत ऐसी चीजें हैं जो अंतर्जाल पर ही निर्भर पाठकों तक पहुंचनी चाहिए, और यह भी कि बहुत कुछ ऐसा है जिसे हम त्रैमासिक के अंकों की समयावधि और पृष्ठ-सीमा के मद्देनजर अपने पाठकों तक आनलाइन ले जाना चाहेंगे.