नई दिल्लीः वाणी प्रकाशन ने रचनाकार गगन गिल की तीन किताबें ‘इत्यादि‘, ‘मैं जब तक आयी बाहर‘ और ‘देह की मुँडेर पर‘ छापीं और अब ऑक्सफोर्ड बुकस्टोर में उनका लोकार्पण व परिचर्चा आयोजित करा रहा है, जिसमें लेखक हरीश त्रिवेदी, मंगलेश डबराल, प्रयाग शुक्ल व सुकृता पॉल कुमार शिरकत करेंगे. प्रकाशन की विज्ञप्ति में इन तीनों किताबों का परिचय कुछ यों है. ‘इत्यादि‘- हम समझते हैं, हमने एक शाम के बाद दूसरी सुबह शुरू की है, समुन्दर में हमारी नौका वहीं पर रुकी रही होगी. नौका बहते-बहते किस अक्षांश तक जा चुकी, यह तब तक भान नहीं होता, जब तक सचमुच बहुत सारे दिन दूसरी दिशा में न निकल गये हों. अपने इन संस्मरणों को पढ़ कर ऐसा ही लग रहा है. क्या मैं इन क्षणों को पहचानती हूँ, जिनका नाक-नक्श मेरे जैसा है? 1984 के दंगों से बच निकली एक युवा लड़की. 2011 में सारनाथ में बौद्ध धर्म की दीक्षा लेती एक प्राचीन स्त्री. 2014 में कोलकाता में शंख दा से पहली ही भेंट में गुरुदेव टैगोर के बारे में बात करती हुई लगभग ज्वरग्रस्त एक पाठक. ये मेरे जीवन के ठहरे हुए समय हैं, ठहरी हुई मैं हूँ. बहुत सारे समयों का, स्मृतियों का घाल-मेल. कभी मैं ये सब कोई हूँ, कभी इनमें से एक भी नहीं. यह तारों की छाँह में चलने जैसा है. बीत गये जीवन का पुण्य स्मरण. एक लेखक के आन्तरिक जीवन का एडवेंचर. हर लेखक शब्द नहीं, शब्दातीत को ही ढूँढ़ता है हर क्षण. बरसों पहले के इस अहसास में आज भी मेरी वही गहरी आस्था है.
‘देह की मुँडेर पर‘- हर देह एक मुँडेर है. उसकी सीमा से आगे संसार शुरू होता है. संसार, जिसका रहस्य, जिसमें अपनी उपस्थिति का आशय, हमें समझना होता है. स्त्री हो, तो उसे हरदम ध्यान रखना होता है, कहीं उलच न जाये, गिर न जाये. ऐसा नहीं कि पुरुष जीवन कोई आसान जीवन है, फिर भी. मैंने इस संसार को स्त्री की आँख से ही देखा है. मेरी संज्ञा का कोई पक्ष नहीं जो स्त्रीत्व से अछूता हो. फिर भी मैं मात्र स्त्री नहीं, जैसे चिड़िया केवल चिड़िया नहीं, मछली केवल मछली नहीं. हमारे होने का यही रहस्यमय पक्ष है. जो हम नहीं हैं, उस न होने का अनुभव भी हमारे भीतर कहाँ से आ जाता है? इस पुस्तक के निबंध साहित्यिक आयोजनों के संबोधन के रूप में लिखे गये कुछ प्रसंग हैं. ‘मैं जब तक आयी बाहर‘- ‘मैं क्यों कहूँगी तुम से/अब और नहीं/सहा जाता/मेरे ईश्वर‘ ये काव्य-पंक्तियां किसी निजी पीड़ा की ही अभिव्यक्ति हैं या हमारे समय के दर्द का अहसास भी? और जब यह पीड़ा अपने पाठक को संवेदित करने लगती है तो क्या वह अभिव्यक्ति प्रकारांतर से प्रतिरोध की ऐसी कविता नहीं हो जाती, जिसमें ‘दर्दे-तन्हा‘ और ‘ग़मे-ज़माना‘ का कथित भेद मिट कर ‘दर्दे-इनसान‘ हो जाता है? गगन गिल की इन कविताओं का अनूठापन इस बात में है कि वे एक ऐसी भाषा की खोज करती हैं, जिसमें सतह पर दिखता हलका-सा स्पन्दन अपने भीतर के सारे तनावों-दबावों को समेटे होता है- बाँध पर एकत्रित जलराशि की तरह. ये कविताएं काव्य-भाषा को उसकी मार्मिकता लौटाने की कोशिश कही जा सकती हैं.