नई दिल्ली: साहित्य अकादेमी ने बाल साहिती के तहत ‘बाल लेखन-अतीत, वर्तमान और भविष्य‘ पर विचार-गोष्ठी और कविता-पाठ का आयोजन किया. संगोष्ठी के अध्यक्षीय उद्बोधन में ओड़िआ विद्वान दाश बेनहुर ने कहा कि बाल साहित्य 18वीं सदी में नहीं शुरू हुआ, लोरी के रूप में मां के मुंह से बाल साहित्य का उदय हुआ. बच्चों के लिए लिखते समय मां की तरह सोचना और आगे बढ़ना चाहिए. बांग्ला रचनाकार उल्लास मलिक ने बांग्ला बाल साहित्य के लेखन का हवाला देते हुए उसके इतिहास को सामने रखा. स्थानीय साहित्यकार जाकिर अली रजनीश ने कहा कि विज्ञान और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो बहुत सी बाल कहानियों ने नुकसान अधिक पहुंचाया है. हिंदी बाल साहित्य अब भी उपदेश और नीति कथाओं के जाल में उलझा हुआ है. मलयाली बाल साहित्य की समीक्षा करते हुए वर्ष 2012 में बाल साहित्य अवार्ड प्राप्त के श्रीकुमार ने कहा कि मलयाली बाल साहित्य के लिये भविष्य नई चुनौतियों से भरा है. मराठी लेखिका सविता करंजकर ने दादी-नानी के कथा कहने की विधा को प्राचीन बाल साहित्य बताया. उन्होंने कहा कि मूल मराठी बाल साहित्य में श्यामची आई यानी ‘श्याम की मां‘ एक कालातीत रचना है. फास्टर फेणे जैसे चरित्र की कहानियां मराठी में खूब पसंद की गयीं. मराठी में बहुत सी बाल पत्रिकाएं हैं जो पसंद की जाती हैं. महाराष्ट्र में किशोर पत्रिका सरकार की ओर से स्कूलों में पहुंचाई जाती है. दीवाली पर बच्चों के लिए विशेष अंक निकालने का चलन है. वहां बाल नाट्य आंदोलन भी जोर शोर से चलता है. मराठी में बाल साहित्य का भविष्य बहुत ही उज्ज्वल है.
इसके बाद कविता-पाठ का आयोजन हुआ, जिसकी अध्यक्षता साहित्य अकादेमी के अध्यक्ष माधव कौशिक ने की. अध्यक्षीय वक्तव्य में माधव कौशिक ने कहा कि जब समाज में विघटन होता है तो उस खालीपन को भरने की जिम्मेदारी साहित्य निभाता है. अब हर विधा में अनंत संभावनाओं के द्वार खुले हुए हैं. बच्चों के लिए रचते समय दृश्य, श्रव्य और पुस्तक माध्यम में लेखक को अलग-अलग टूल्स इस्तेमाल करने होंगे. समारोह में लता हिरानी ने अपनी गुजराती कविता का हिंदी अनुवाद ‘बात चली है गांव गांव में, चमक चांद पर जायेगी‘. लखनऊ के सुरेंद्र विक्रम ने बाल रचना ‘पापा कहते बनो डाक्टर, मां कहती इंजीनियर….‘ में बच्चों पर थोपे गयी बातों के संग बाल मन की अभिलाषा और उनपर पढ़ाई के बोझ की चर्चा की. उन्होंने एक और रचना खेल-खेल में भी पढ़ी. मणिपुरी कविता पढ़ने वाले खोइसनम मंगोल ने दो लघु कविताएं पढ़ीं. उन्होंने लयात्मक तरीके से बताया कि बच्चों का व्यवहार कैसा होना चाहिए.
तेलुगु रचनाकार वूरीमल्ला सुनंदा ने मूल रचना के साथ हिंदी अनुवाद, ‘काश मेरे पास दो पंख होते…‘ से बाल मन की उड़ानों को शब्दों में दर्शाया. उनकी दूसरी कविता ‘इसी को कहते क्या हल्ला- हल्ला….‘ में प्रकृति प्रेम का चित्रण था. कानपुर के उर्दू विद्वान शोएब निजाम ने पतंग नज्म, ‘सर-सर सर-सर पर फैलाये….‘ और दूसरी रचना ‘छुट्टी का मौसम‘ में बच्चों की मस्ती का जिक्र किया. समापन करते हुए अकादेमी उपाध्यक्ष कुमुद शर्मा ने पढ़ी गयी रचनाओं के तेवर और विषयों की बात करते हुए कहा कि आज इक्कीसवीं सदी में भी बच्चों को सहजता आकर्षित करती है.