नई दिल्लीः भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के महानिदेशक पद से सेवानिवृत्त राकेश तिवारी को प्रकृति, पुरातत्व और इतिहास से इस कदर प्यार रहा कि अपने समूचे सेवाकाल के अनुभवों को जब-तब वह रिपोर्ताज और लेखों की शक्ल में कागज पर उतारते गए, और समय-समय पर उन्हें पत्र-पत्रिकाओं में भी जगह मिली. कई बार ये अनुभव किताबों की शक्ल में भी पाठकों के पास आए. नेपाल यात्रा पर आधारित उनकी पुस्तक 'पहियों के इर्द-गिर्द' और दिल्ली से कोलकाता तक की यात्रा पर आधारित 'सफर एक डोंगी में डगमग' को पाठकों से काफी सराहना मिली. इन दोनों पुस्तकों का प्रकाशन क्रमशः लखनऊ की युवा परिभ्रमण एवं सांस्कृतिक समिति और दिल्ली के राजकमल प्रकाशन ने किया था. अब उनकी तीसरी किताब उत्तर प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी भू-भाग जिला मिर्जापुर, सोनभद्र और चंदौली में वर्षों तक किए सर्वेक्षण और सैर वृतांत पर आधारित 'पवन ऐसा डोलै' नाम से आई है. यह पुस्तक राकेश तिवारी के किशोरावस्था और यौवन के दिनों में जुड़े घुमक्कड़, खोजी और शोध संस्मरणों पर आधारित है, जो उनकी पारखी दृष्टि को उजागर करता है.
खुद राकेश तिवारी के शब्दों में, "इस किताब का पहला पन्ना तरुणाई की दहलीज़ डांक कर, जवानी के पाले में कदम धरती बीस बरस की उमर में की गयी विंध्य-क्षेत्र की पहली यात्रा के विवरण से शुरू होता है. इस यात्रा के दौरान विन्ध्य के पठारों, वनों, कन्दराओं और झरनों के संगीत-सौन्दर्य-रोमांच ने मुझे ऐसा सम्मोहित किया कि घुमक्कड़ी की गरज से पुराविदी की नौकरी पकड़ ली. यह लस्तगा चार दशकों से भी आगे तक चलता रहा. जब-जब मौक़ा बना, बार-बार सोनभद्र, मीरजापुर और चंदौली जिलों में डेरा डाल कर शिला-चित्रों, मंदिरों-मूर्तियों, किलों वगैरह का लेखा जुटाने के साथ ही सोन, रेणु, रिहंद और बेलन की घाटियों, घाटों, वनों और गांवों की खाक छानते, स्थानीय लोक-कथाओं-गीतों, बोली-बानी का रस-पान करता रहा. इस बीच निर्जन कुदरती दामन की तनहाई में सुकून पाने के नशे में, देखे-सुने और संवेगों-संवेदनाओं को लिख कर संजोने के चस्के के चलते ही इस पुस्तक का वृत्तांत लिखा, वह भी अपनी 'भाषा' में – इस आशय से कि जिन आम लोगों की कमाई से ताज़िंदगी पगार पाता रहा. उन्हें भी तो पता चले कि उसका हासिल हिसाब क्या रहा." इस किताब को लखनऊ के रश्मि प्रकाशन ने छापा है और मूल्य है 275 रुपए.