15 अक्तूबर को महाप्राण निराला की पुण्यतिथि है। इस मौके पर युवा समीक्षक पियूष द्विवेदी ने उनकी कविताओं के बहाने से एक टिप्पणी की है।
हिंदी साहित्य में रचनाकारों को विचारधारा विशेष के खूंटे से बाँधने की कोशिश की जाती रही है। छायावाद के दौर के श्रेष्ठ कवि लेखक सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भी इससे बचे नहीं। एक पक्ष के लिए वे साम्यवादी मान्यताओं से प्रभावित रचनाकार हैं, तो दूसरा पक्ष उनमें राष्ट्रवाद के उद्घोषक की छवि देखता है। अद्भुत यह है कि इन दोनों ही पक्षों के पास अपनी बात को तथ्यात्मक धरातल प्रदान करने के लिए उदाहरणस्वरूप निराला की रचनाएं भी मौजूद होती हैं।
दरअसल निराला का रचना–संसार इतना व्यापक और विविध है कि उसमें अनेक विचारधाराओं के छिटपुट रंग मिल जाते हैं, लेकिन इस आधार पर उनकी पूरी रचनाधर्मिता को एक किसी ख़ास विचारधारा के रंग में रँगना ठीक नहीं है। वास्तव में निराला ‘जहां न पहुँचे रवि, वहाँ पहुंचे कवि’ की उक्ति को चरितार्थ करने वाले रचनाकार हैं। उनकी कोई सीमा नहीं है। उनका समग्र मूल्यांकन करके ही उनकी कविता के मूल स्वर की पहचान की जा सकती है।
‘अब, सुन बे, गुलाब,
भूल मत जो पायी खुशबू, रंग–ओ–आब,
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,
डाल पर इतरा रहा है केपीटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम’
उक्त पंक्तियाँ निराला की सुप्रसिद्ध कविता ‘कुकुरमुत्ता’ की हैं। ये उन कविताओं में प्रमुख है, जिनके आधार पर वामपंथी बुद्धिजीवियों द्वारा निराला को साम्यवादी प्रभाव का कवि घोषित किया जाता है। इस कविता में ‘गुलाब’ को पूंजीवाद और कुकुरमुत्ते को साधारण जन का प्रतीक मानते हुए इसे एक पूंजीवाद विरोधी कविता कहा जाता है, जबकि समग्रतः देखें तो यह कविता तत्कालीन ब्रिटिश ‘साम्राज्यवाद’ के विरुद्ध भारतीयता की हुंकार प्रतीत होती है। इस कविता के दूसरे प्रमुख पात्र गुलाब का विदेशी होना तो इस बात की तस्दीक करता ही है, ‘खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट।।।। कितनों को तूने बनाया है गुलाम’ जैसी पंक्तियाँ भी इसके ब्रिटिश हुकूमत विरोधी होने का ही संकेत करती हैं। इसके अलावा कुकुरमुत्ता गुलाब के समक्ष अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए सुदर्शन चक्र, बलराम का हल, राम का बाण आदि जिन उदाहरणों का प्रयोग करता है, वो भारतीय आख्यानों से लिए गए हैं। अब भारतीयता के प्रतिमानों से पूर्ण यह कविता लिखकर निराला, अभारतीय विचारधारा ‘साम्मायवाद’ के समर्थक कैसे हो जाते हैं, ये समझ से परे है।
दरअसल कुकुरमुत्ता, भिक्षुक, सरोज–स्मृति आदि निराला के सहज संवेदनशील ह्रदय से निकली अच्छी रचनाएं हैं, लेकिन उनकी रचनात्मकता का प्रकर्ष तो राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास और वीणावादिनी वर दे जैसे रचनाओं में ही दिखाई देता है। भारतीयता के भावों से भरी ये वो रचनाएं हैं, जिन्होंने न केवल कथ्य और शिल्प दोनों ही बिन्दुओं पर हिंदी कविता में युगांतर स्थापित किया, वरन निराला की मूल काव्य–प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व भी यही रचनाएं करती हैं।
उपर्युक्त बातों से स्पष्ट है कि निराला की कविता का मूल स्वर भारतीयता है। कहीं मुखर तो कहीं मद्धिम स्वर में भारतीयता की भावना उनकी रचनाओं में प्रस्फुटित हुई है। सभी वैचारिक आग्रहों से मुक्त होकर अगर निराला को पढ़ेंगे तो उनकी रचनाओं में यत्र–तत्र–सर्वत्र भारतीयता का स्वर व्याप्त दिखाई देगा।