नई दिल्ली: किसी पत्रकार का व्यंग्यकार हो जाना और सियासत जैसे विषय पर व्यंग्य लिखना कितना मारक हो सकता है, इसे समझना हो तो भवेश चंद की किताब 'राजनीतिक बात-बेबात' को पढ़ना होगा. इस किताब के शब्द भी गरमी और ठंडक का एहसास देते हैं. कम समय में भवेश चंद ने अपनी प्रतिभा के बल पर अच्छी दूरी तय की है, लेकिन पत्रकारों के लिए कभी आसान रहा भी नहीं यह सफर. उस पर पत्रकार व्यंग्य लेखक हो जाए तो आप उसके शब्द सामर्थ्य का अंदाजा लगा सकते हैं. खास तौर से राजनीतिक विषयों पर लिखना एक बेहतर समझदारी से गुजरना है. इस किताब में ज्यादातर व्यंग्य राजनीतिक हैं. इसकी खासियत यह कि ये कहीं से भी बोझिल नहीं हैं और आप बीच में छोड़कर पन्ना पलटने का मन नहीं बना सकते. इस किताब के हर शब्द बांधे रखने में सक्षम हैं और पाठक को अंतिम पूर्णविराम तक पहुंचाने में सक्षम हैं. हर दिन की बड़ी या चर्चित खबर की इतनी बारीक समझ कम पत्रकारों में दिखती है, जितनी यहां है. खबर के एनालिसिस से आगे की चीज है खबर पर व्यंग्य लिखना.
'राजनीतिक बात-बेबात' पुस्तक समय की नब्ज पर हाथ रखने की तरह है और समय की गरमाहट महसूस करने व कराने में समर्थ है. लेखक की मुट्ठी में जो समय है, वह बालू की तरह नहीं है. हां, ये व्यंग्य पढ़ते हुए आपको एहसास होगा कि क्या शब्द भी गरम और ठंडे होते हैं? आप कई व्यंग्य पढ़ते हुए महसूस करते हुए इसका जवाब पा सकेंगे. बिहार की राजनीति पर लिखते वक्त ऐसे शब्दों का प्रयोग बहुत संभलकर करना होता है, लेखक ने संभलकर लिखा है. उन्होंने शब्द हिसाब से खर्च किए हैं. तराशे हुए शब्द, चमकते शब्द और अंधेरे को दूर करते शब्द. इसमें आप बिहार की राजनीतिक उथल-पुथल भी महसूस कर सकते हैं और शासक के मिजाज से लेकर मनमानी तक को निशाने पर लेते हुए देख सकते हैं.