नई दिल्लीः प्रवासी संसार फाउंडेशन ने 'भारतीय लोकगीत व संगीत का विश्वरंग' कार्यक्रम आयोजित किया. कार्यक्रम की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार व भाषाविद् राहुल देव ने की. मुख्य अतिथि मॉरीशस की लोकविद सरिता बुधु थीं, उनके साथ मॉरीशस के ह्यूमन सर्विस ट्रस्ट के प्रमुख प्रेम बुझावन मुंशी, फीजी के डिप्टी हाई कमिश्नर निलेश कुमार और अंतरराष्ट्रीय सहयोग परिषद् के मानद निदेशक नारायण कुमार विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित रहे. कार्यक्रम के संयोजक डॉ राकेश पांडेय ने कहा कि भारतीय संस्कृति की धुरी हमारे लोकगीत व संगीत हैं, जिनमें हमारे जीवन के अनेक रंग समाहित हैं. हमारे संस्कार गीतों की उपस्थिति पूरे विश्व में दिखाई देती है. इसी प्रकार हमारे ऋतु गीत व जातिगत गीत भी हैं, जिन्हें आज बिसरा दिया जा रहा है. आज होली के अवसर पर केवल फिल्मी गाने ही सुनाई पड़ते हैं, जबकि फाग गीतों की एक अमूल्य निधि हिंदी लोक साहित्य में उपलब्ध है. इन्हें फिर से जीवंत करने की आवश्यकता है. कार्यक्रम की शुरुआत तबला वादन से हुई. कथक केन्द्र दिल्ली के तबला गुरु डॉ नागेश्वर लाल कर्ण के शिष्यों प्रह्लाद सिसोदिया एवं वेनेजुएला के बलराम दास पैरेज ने जुगलबंदी प्रस्तुत की. उनके गुरु ने हारमोनियम पर लहरा संगति दी और लोकगीत 'देसवा हमार भैया फुलवा के दोना, रतिया मे चांदी झड़े दिनमा मे सोना' सुनाया. राष्ट्रपति से सम्मानित भोजपुरी गायिका नीतू कुमारी नूतन ने 'विदेसिया' गा कर सब का मन मोहा. गोंडा से ऑन लाइन जुड़े अवधी लोक गायक शिवपूजन शुक्ला ने भारतीय लोक संस्कृति में गारी के महत्त्व को रेखांकित करते हुए उनमें से कुछ गारी सुनाया भी- 'राम कहैं लछिमन मुसकावैं चलौ चली भइया ससुरारी, केहकर हुवव तू बारी दुलारी केहकै रखाओ फुलवारी…'
अवध भारती संस्थान लखनऊ के अध्यक्ष डॉ रामबहादुर मिश्र ने अवधी फाग गीतों पर प्रकाश डाला और कहा कि अवधी फाग गीतों की बड़ी समृद्धशाली परम्परा रही है. उसकी सबसे बड़ी विशेषता उसका छंद वैविध्य है. होली, चौताल डेढ़ताल धमाल, चलाया, लेज चहली आदि छंदों का लालित्य बहुत ही प्रभावशाली और महत्त्वपूर्ण है. यह परम्परा आज भी जीवंत है. ब्रज भाषा में लोकगीतों के लेकर डॉक्टर हरिसिंह पाल ने विस्तार से ब्रज की लोक संस्कृति पर प्रकाश डाला. उन्होंने विश्व प्रसिद्ध ब्रज में लठमार होली की परंपरा को भी विस्तार से बताया. अमेरिका निवासी मीरा सिंह ने भोजपुरी में लोक गीतों पर प्रकाश डाला. इस वर्ष पद्मश्री पुरस्कार ग्रहण करने वाली प्रसिद्ध लोकविद डॉ विद्या बिंदु सिंह ने मानवीय संवेदनाओं में लोक गीतों के महत्त्व को रेखांकित किया. डॉ पवन विजय ने चैती 'महुआ चुवत आधी रैन हो रामा चईत महिनवाँरस बरसत आधी रैन हो रामा चईत महिनवाँ…' सुनाई. श्रावस्ती के अवधी कवि मनोज मिश्र, अयोध्या के लोककवि विश्वबंधु ने भी अपनी रचनाओं का पाठ किया. कार्यक्रम के अंतिम चरण में अतिथियों ने अपने विचार व्यक्त किए. नारायण कुमार ने पं हजारी प्रसाद द्विवेदी के वक्तव्य कि 'बसंत आता नहीं है, लाया जाता है' के जिक्र से कार्यक्रम की प्रशंसा की. निलेश कुमार ने फिजी में प्रचलित लोकगीतों पर प्रकाश डाला और कहा कि उनके देश की आबादी लगभग 900000 है, जिसमें लगभग 2000 से अधिक रामायण मंडलियां हैं. मॉरीशस के प्रेम बुझावन मुंशी ने वहां भारतीय लोक संस्कृति की उपस्थिति के बारे में विस्तार से बताया और गंगा तालाब का उदाहरण दिया. सरिता बुधु ने बताया कि गीत गवई के माध्यम से मॉरीशस में किस प्रकार से लोकगीतों को संरक्षित किया गया है और यूनेस्को ने उसे मान्यता दी है. उन्होंने संझा गीत 'संझा भईले संझा' गाया. कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार राहुल देव ने युवा पीढ़ी को इन लोक गीतों से जोड़ने पर बल दिया. उन्होंने भाषाई संकट पर सब का ध्यान आकृष्ट किया और स्वयं तुलसीदास कृत 'ठुमक चलत रामचंद्र, बाजत पैंजनियां…' गाकर सुनाया. संचालन डॉ राकेश पांडेय ने किया. कार्यक्रम में देश-विदेश के अनेक लोग उपस्थित रहे, जिनमें डॉ सुरेश ऋतुपर्ण, राकेश दुबे, शरद कुमार, शिव कुमार बिलग्रामी, ज्ञानेश्वर तिवारी, विनय मिश्रा, सतेन्द्र सहाय, राजमणि, विकास कक्कड़, अमित दुबे, विनोद कुमार अहलूवालिया, राजेश कुमार मांझी, वीणा मित्तल, आभा चौधरी, सुषमा पांडेय, रोमा भारतीय डायसपोरा के विद्वान जमील अनवर, दिलीप गोंडवी, अविरल पांडेय, मनस्विनी पांडेय आदि शामिल थे.