[अनंत विजय] जब भी बनारस जाने का अवसर मिलता है तो थोड़ा समय निकालकर वहां के पुस्तकालयों को देखने जाता हूं। करीब तीन साल पहले बनारस गया था। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय के उस समय के कुलपति प्रोफेसर राजाराम शुक्ल ने मनोयोगपूर्वक अपने विश्वविद्यालय का पुस्तकालय दिखाया था। हमने वहां काफी समय बिताकर ग्रंथों और पांडुलिपियों को देखा था। उस पुस्तकालय में पहली बार स्वर्णाक्षरों में लिखी पांडुलिपि देखी थी। पांडुलिपियों और उनके संरक्षण के बारे में बातचीत के क्रम में राजाराम शुक्ल ने उनको बेहतर ढंग से सहेजे जाने को लेकर चिंता जताई थी। संसाधन की कमी की बात सामने आई थी। पांडुलिपियों को एक खास किस्म के कपड़े में लपेटकर रखा जाता है जिसके लिए धन की आवश्यकता थी। उसी समय काशी विश्वनाथ मंदिर के पास के गोयनका पुस्तकालय देखा था। वहां कई दुर्लभ ग्रंथ थे, जो या तो खुली रैक पर रखे थे या फिर अल्मारियों में बंद थे। बेहतर रखरखाव की कमी थी। बताया जा रहा है कि अब गोनका पुस्तकालय को दूसरी जगह शिफ्ट कर दिया गया है। पता नहीं पुस्तकें किस हाल में हैं। बनारस में ही काशी हिंदू विश्वविद्यालय की सेंट्रल लाइब्रेरी है, नाम है सयाजीराव गायकवाड़ ग्रंथालय। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की इस लाइब्रेरी का बेहद समृद्ध इतिहास रहा है। पुस्तकालय की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसकी स्थापना 1917 में की गई थी। कई बार इसकी जगह बदली। 1941 से वर्तमान भवन में पुस्तकालय चल रहा है। इस पुस्तकालय भवन का निर्माण बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव गायकवाड़ ने करवाया था। महामना पंडित मदन मोहन मालवीय ने 1931 में लंदन प्रवास के दौरान ब्रिटिश म्यूजियम लाइब्रेरी देखी थी। उन्होंने ही बड़ौदा के महाराज को सुझाव दिया था कि काशी हिंदू विश्वविद्लाय के पुस्तकालय की इमारत भी वैसी ही होनी चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के ग्रंथागार से आरंभिक दिनों में प्रख्यात इतिहासकार सर यदुनाथ सरकार जुड़े रहे थे।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के इस ग्रंथालय की चर्चा इस वजह से की जा रही है कि यहां रखी ऐतिहासिक महत्व की पत्रिकाएँ बहुत बुरी स्थिति में हैं। ग्रंथालय के प्रथम तल पर पत्र- पत्रिकाओं के विभाग में बेहद महत्वपूर्ण पत्रिकाएँ संग्रहित हैं। इन पत्रिकाओं में सरस्वती, विशाल भारत,माधुरी, कल्पना, विश्वमित्र, कलकत्ता रिव्यू, हिन्दुस्तान रिव्यू, जर्नल आफ इंडियन ट्रेड, इंडियन फाइनेंस जैसी पत्रिकाओं की फाइलें उपलब्ध है। इन पत्रिकाओं का स्थायी महत्व है क्योंकि उसमें उस दौर का पूरा इतिहास है। साहित्यिक पत्रिकाओं में हिंदी साहित्य का स्वाधीनता पूर्व से लेकर बाद के कई दशकों का इतिहास दर्ज है। वित्त और वाणिज्य से जुड़ी पत्रिकाएं इन विषयों में शोध करनेवालों के लिए बेहतरीन सोर्स हैं। समाज शास्त्र की पत्रिकाओं से समाज में हो रहे बदलाव या उसके विकासक्रम को रेखांकित कर सकते हैं। रखरखाव के अभाव में पत्रिकाएं नष्ट होने के कगार पर पहुंच गई हैं। नमी और धूल से वो खराब हो रही हैं। पत्रिकाओं को पलटने के बाद उनको संभालना बेहद कठिन है। ग्रंथालय के इस हिस्से में रोशनी भी कम है और अगर वहां की खिड़की खोलने का प्रयास किया जाए तो उसके भी टूटने का खतरा है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश के सबसे समृद्ध पुस्तकालयों में एक में उपलब्ध पत्रिकाओं को नमी और धूल से बचाने का कोई उपाय नहीं किया गया है
जिस पुस्तकालय का सपना महामना मदनमोहन मालवीय ने देखा और जिसको सर यदुनाथ सरकार ने जतन से संजोया वो आज इस हालत में क्यों पहुंच गया है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय का प्रशासन अपनी धरोहर को लेकर उदासीन क्यों है। ऐसिहासिक महत्व की पत्र-पत्रिकाएं धूल क्यों फांक रही हैं। यह भी नहीं कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार से संबद्ध उच्च शिक्षण संस्थानों में धन की कमी है। इस वित्त वर्ष में केंद्र सरकार ने उच्च शिक्षा के बजट आवंटन को तेरह प्रतिशत बढ़ाकर चालीस हजार करोड़ से अधिक कर दिया है। सयाजीराव केंद्रीय ग्रंथालय की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के मुताबिक वहां एक पुस्तकालयाध्यक्ष, आठ उप- पुस्तकालयाध्यक्ष और पांच सहायक पुस्तकालयाध्यक्ष कार्यरत हैं। बावजूद इसके पत्रिकाओं का उचित देखभाल न हो पाना हैरान भी करता है और चिंतित भी। काशी हिंदू विश्वविद्यालय केंद्रीय विश्वविद्यालय है और प्रधाकेंद्रीय विश्वविद्यालय है और प3स्ीन सोर्स हैंे दे नमंत्री नरेन्द्र मोदी के निर्वाचन क्षेत्र में स्थित है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात है कि ये ज्ञान का केंद्र है और देश विदेश के तमाम शोधार्थी यहां शोध करने के लिए आते हैं। जरा सोचिए कि जब शोधार्थी इतनी बड़ी लाइब्रेरी के किसी हिस्से को बदहाल देखते होंगे तो इस ज्ञान केंद्र की कैसी छवि उनके मन में बनती होगी। सवाल यह उठता है कि हम अपनी समृद्ध विरासत को लेकर इतने उदासीन क्यों रहते हैं। इस उदासीनता की वजह क्या उन लोगों की नासमझी है जो इनके रखरखाव के लिए उत्तरदायी हैं या फिर उनकी लापरवाही है या दोनों। इस बारे में अगर समग्र दृष्टिकोण से विचार करते हैं तो ये लगता है कि उदासीनता की वजह नासमझी और लापरवाही दोनों है। इसके अलावा एक वजह तकनीक के उपयोग को लेकर उत्साही नहीं होना है। अन्यथा आज के डिजीटल युग में पत्रिकाएं इस तरह से नष्ट नहीं हो रही होतीं। उनको डिजीटाइज करके या उनकी माइक्रो फिल्म बनाकर संरक्षित किया जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार तकनीक के उपयोग पर जोर दे रहे हैं लेकिन उनके ही निर्वाचन क्षेत्र में स्थित केंद्रीय विश्वविद्यालय में तकनीक के उपयोग को लेकर उदासीनता समझ में नहीं आती।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कहा गया है कि ‘सभी संस्थानों और विश्वविद्यालयों में जिसमें शास्त्रीय भाषएं और साहित्य पढ़ाया जा रहा है, उनका विस्तार किया जाएगा। अभी तक उपेक्षित रहे लाखों अभिलेखों के संग्रह, संरक्षण, अनुवाद और अध्ययन के दृढ़ प्रयास किए जाएंगे।‘ राष्ट्रीय शिक्षा नीति में अभिलेखों के संरक्षण पर बल दिया गया है। ज्ञान साम्रगी के संरक्षण के लिए अगर आवश्यकता हो तो जनसहयोग भी लिया जाना चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में रखी पत्रिकाओं के संरक्षण के लिए निजी क्षेत्र का भी सहयोग लेना पड़े तो लिया जाना चाहिए। कोई सरकारी नियम इसमें बाधा बनती हो तो उसको तत्काल बदलना चाहिए। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में रखी गई दुर्लभ पांडुलिपियों के संरक्षण के लिए जिस विशेष कपड़े की आवश्यकता है उसके लिए भी संसाधन उपलब्ध करवाया जाना चाहिए। पुस्तकें और पत्र पत्रिकाएं को संरक्षित कर हम अपनी संस्कृति को न केवल मजबूत करते हैं बल्कि आनेवाली पीढ़ी को संस्कारित भी करते हैं। पिछले दिनों बिहार के पूर्णिया से समाचर आया था कि वहां के जिलाधिकारी राहुल कुमार ने अनूठी पहल की और जिले के 230 ग्राम पंचायतों में पुस्तकालय खोला है। ये जनसहयोग से संभव हो पाया। अगर जनसहयोग से नए पुस्तकालय खुल सकते हैं तो पहले के पुस्तकालयों का संरक्षण भी संभव है। आवश्यकता है इच्छाशक्ति और पहल की।