दिनकर दिन हैं। हिंदी कविता के दिन। वो दिन जो हिंदी को उस ऊंचाई पर ले गए जहां हिंदी अपने साहित्य के पहाड़ पर खड़ी हो गई। भाषाओं के समाज में कुछ बड़ी हो गई। दिनकर से हिंदी साहित्य समृद्ध नहीं हुआ वो अमर हुआ। दिनकर ने कई रथियां दी। जिन पर सवार होकर जीवन का सरल आनंद लिया जा सकता है। दिनकर विविध भी लिखते है और गहरा भी लिखते हैं। पिछले दिनों राष्ट्रकवि दिनकर जी का जन्मदिवस था २३ सितंबर को। उनके शब्द, उनकी कविताएँ, उनकी रचनाएँ, तब से स्वतः उर में चलती रही। अतः मन पढ़ता रहा, बार-बार उनसे सीखता रहा। 'रश्मिरथी' से लेकर 'कुरुक्षेत्र' तक 'परशुराम की प्रतीक्षा' पढ़ता रहा। 'द्वंद गीत' गाते-गाते भी 'धूप छाँव' खेलता रहा। ” नीम के पत्तों” में उनकी मिठास पाता रहा। “नील कुसुम” में निलोत्पल ढूंढ़ता रहा। “दिल्ली” से शहरों को समझता रहा।' हुंकार' पढ़ते पढ़ते चेतना में ' तांडव ' चलता रहा। पढ़ते पढ़ते चलते चलते ढूंढते ढूंढते समझ अाया कि जब दिनकर क्रोध में होते हैं तब भी होश में लिखते हैं, विवेकसम्मत ही लिखते हैं। जब वो शांत होते हैं तब भी शक्ति की अर्चना करते हैं। जब वो प्रेम की बात करते हैं तो वो आसक्ति से करते हैं। दिनकर की एक पंक्ति में कई संदेश होते हैं और हर संदेश में एक जीवनदर्शन होता है जो एक पूरी पीढ़ी को जाग्रत कर सकता है। क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो, दिनकर विष की महत्वतता पर कितनी आसानी से बोल जाते हैं जिसके पास जो शक्ति है उसकी जरूरत समझा जाते हैं। शक्ति और विनती का अद्भुत समन्वय दर्शा जाते हैं। बोलते वो नौका पर हैं और हिम्मत मनुष्य को देते है; नौका तट छोड़ चली कुछ पता नहीं किस और चली, ये बीच नदी की धारा है, सूझता ना कूल किनारा है; फिर भी वो लौटना नहीं सिखाते सिर्फ आगे जाना सिखाते हैं। आगे आने वाले संकट की परिकल्पना का डर नहीं दिखाते हैं;ले लील भले ये धार मुझे; उस संकट से पार पाने में होने वाले बलिदान का गर्व बोध कराते हैं। धार में घुलना हो या मांझी मल्लाह जैसा योद्धा बनना हो हर समय दिनकर निर्णय लेना सिखाते है।विकल्प में फंसना नहीं बताते। सीधा निर्णय लेकर आगे बढ़ना बताते हैं। दिनकर मानव हैं और पत्थर को तोड़ते हैं, उसके पांव उखाड़ते हैं, जोर लगा कर उसे पीस देते हैं पत्थर को पानी बना देते हैं। शक्ति के लिए दिनकर मूल पर नहीं जाते हैं वो मनुष्य के अंदर ही पवित्र आग लगा देते हैं। ऊंच नीच जाति गोत्र से बहुत आगे निकल कर स्वयं को पहचानने और विकसित करने पर जोर देते हैं। वो जितना सम्मान बल पौरुष अग्नि को देते हैं उतना ही त्याग और शांति को देते हैं। स्वाभिमान क्यों होना चाहिए वो इसे समझाते हुए अभिमानी को कलंकित भी कर देते हैं। गलत पर बहुत तेज प्रहार करते हैं; कमजोर को शक्ति परिपूर्ण कर देते हैं; रास्ते बनाने की कला, कौशल और जोश का संचार कर देते हैं। उनके पास ओज की अग्नि है तो जीवन के मधुर क्षणों की सार्थक उपस्थिति भी। वो युद्ध की हुंकार भरते हैं, राजनीतिक फैसलों की असफलता पर चोट भी करते हैं तो प्रेम और प्रकृति का मानव जीवन से समन्वय और सहचार्य भी दर्शाते है। समाज और सांसारिक संबंधों में पहले बांधते हैं, हमे संबंधों में बंधना सिखाते हैं, उसे निभाना सिखाते हैं और फिर अनुचित संबंधों को तोड़ना भी सिखाते है। उनके कर्ण अर्जुन के भ्राता भी है कुंती के पुत्र भी है पर जीवन दान दुर्योधन पर करते हैं। दिनकर व्यक्ति को उसके अकेले होने का अहसास कराते हैं। क्यों अकेला होना चाहिए, क्यों अपने मूल वंश से मिली उस विरासत को नकारना चाहिए जो गुणों पर आधारित ना हो; “जिसे गुण नहीं गोत्र प्यार है, समझो उसी ने यहां हमको मारा है”; क्यों हर व्यक्ति को स्वयं को सिर्फ और सिर्फ अपने गुणों से स्थापित करना चाहिए, क्यों वीर वही है जो अपनी वीरता में मानवता के मूल्यों के शस्त्र भी रखता है। ऐसा कौन सा गुण है ऐसी कौन सी कुशलता है ऐसी कौन सी नीति है जो सीखी नहीं जा सकती जो रीति नहीं जा सकती।वो सीखने को नियति बताते है तो जन्म को अाकस्मात। जन्म पर नियंत्रण नहीं होने को समझाते हैं तो जीवन में हर विधा पर नियंत्रण पाने को समझाते हैं। उनका वीर वो नहीं है जो जीत जाए उनका वीर वो है जो जूझ जाए। ये वीरत्व तपने से आता है, विप्पती को झेलने से आता है, संकट को गहने से आता है, विघ्नों को ठेलने से आता है। वो पूछते हैं जय विजय यश सम्मान किसका हो, भविष्य सूत्र धार कौन हो, उस दिनकर का हो, जिसने धूम घाम पानी पत्थर सहा हो, बाधा विघ्नों को चूमा हो, जिसने कांटों में अपनी राह बनाई हो, ना कभी आराम किया हो, जिसका विवेक उसे जगत निर्माण की ओर अग्रसर करता हो, जो त्याग तपस्या में जीवन का आनंद ढूंढ लेता हो, जो दया धर्म से अलंकृत पूज्य हो। हमारे टूटते संस्कारों को दिनकर सिर्फ जोड़ते नहीं हैं वो हमें हमारे टूटने का अहसास भी करा देते हैं। टूटी फूटी सामाजिक ड्यूटी को वो खुलकर चुनौती देते हैं। सुंदर भविष्य की कल्पना करते हुए प्रत्येक मनुष्य की कर्तव्यनिष्ठा को तय करते हैं तो समाज को बर्बाद करने वाले हर विचार और हर व्यक्ति को चुनौती देते हैं। रश्मि रथी में दिनकर जाति के गरल को खुद पी रहे होते हैं तो कुरुक्षेत्र में युद्ध की विभीषका से मुक्त होते हुए भी उसके अभिशाप से बचने का सुझाव दे रहे होते हैं।विजय उनकी सबसे प्रिय है फिर भी युद्ध के विनाश को वो देखते हैं, युद्ध को पहचानते भी हैं, जानते है कि युद्ध का परिणाम अंतिम ध्वंस ही है। जीवन के तमाम द्वंदों को सिर्फ दो दो पंक्तियों में समझा रहे होते हैं। चरित्र से कहानी गड़ते हैं तो कहानी को चरित्रों की नैतिकता और अनैतिकता से समझा रहे होते हैं। रचनाएं कई है पर दिनकर एक है। वो हर रचना में अपनी हुंकार से दिख जाते हैं। उठने दे हुंकार हृदय से, जैसे वह उठना चाहे, किसका कहां वक्ष फटता है इसकी चिंता मत कर, अोज सहित स्पष्ट निर्णय के साथ भावनाओं को स्फुटित करने की ऐसी अविरल अनुभूति दे जाते हैं। वो गंगा का पानी खौलाते हैं, देश की मिट्टी को दहकाते हैं, भारत की लाल भवानी जगाते हैं। उनकी मगध महिमा भी इतिहास के आंसू रूप में निकलती है। वो अतीत के द्वार पर खड़े होकर बोधिसत्व प्राप्त करते हैं तो पाटलिपुत्र की गंगा में वैभव की समाधि लगाते हैं। दिल्ली से मॉस्को भी जाते हैं, समता का अभियानी बनते हैं। उनके भावों के आवेग से हर हृदय में हलचल होना ही उनका होना हैं।जब जब जिस जिस बंधन को हम तोड़ेंगे तब तब उनका मंगल आव्हान करेंगे। दुर्बल प्राणों की उस नस में चिंगारी जब जब फूंकी जाएगी तब तब वो सिद्ध होते रहेंगे। जब जब तेज हवाएं चलेंगी तब तब दिनकर पंख खोल लेंगे और झंझाओं में उड़ते रहेंगे। जब जब स्वदेश को नष्ट करने की कोई ताकत चेष्टा करेगी तब तब दिनकर प्यारे स्वदेश के हित अंगार मांगेंगे और चढ़ती जवानियों के श्रृंगार से मातृभूमि को सुशोभित करते रहेंगे। जब जब वो प्यारे स्वदेश के हित वरदान मांगेंगे तब तब उन्हें ईश्वर प्राप्त होते रहेंगे।
– विनय ॐ तिवारी
(लेखक IPS अधिकारी हैं)