नई दिल्लीः विश्व पुस्तक मेले के दौरान वाणी प्रकाशन के स्टॉल पर भी कई कार्यक्रम हुए. जिनमें मार्क्सवादी समीक्षक, स्तम्भकार और मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की आलोचनात्मक कृति 'तीसरी परम्परा की खोज' और कवि व गीतकार हरिओम के कहानी संग्रह 'तितलियों का शोर' का अलग-अलग लोकार्पण व चर्चा शामिल है. अपनी किताब के बारे में सुधीश पचौरी ने कहा, साहित्य भी इतिहास है. जब हम इसे तीसरी परम्परा कहते हैं तो इसमें पहली व दूसरी परम्परा भी समाहित हो गयी है. इतिहास के साथ आलोचना का डिपार्रचर पॉइंट क्या होगा? इतिहास का साहित्यिक मोह. अब तक साहित्य इतिहास का बाय प्रॉडक्ट नज़र आता है. इतिहास की सबसे बड़ी समस्या ये थी कि इस्लाम को साहित्य में किस रूप में लिया. कोई भी इतिहास सीधी लाइन नहीं होता. उदाहरण के लिए शुक्ल जी ने माना यह इस्लाम का धक्का था, वहीं द्विवेदी जी कहते हैं इस्लाम आता न आता ऐसा ही रहता, हिन्दी साहित्य का इतिहास वहीं रहता. इतिहास व साहित्य के मिलने में कोई परम्परा तो रही होगी… यही तीसरी परम्परा है. हमारे इतिहास में काफ़ी चीज़ें छुपा ली गयीं. वह इस मिथ को तोड़ते नहीं हैं कि संसार में सभी कष्टों में ईश्वर का नाम ले लो, नाम ही काफ़ी है. कलयुग में सत्संग से ही भगवान की कृपा प्राप्त होती है. नये तरह से इतिहास पढ़ना शुरू करो नवीन पाठक वर्ग नये साहित्य के तथ्यों से अवगत हों यही हमारी जिज्ञासा हैं.
कवि व कथाकार हरिओम ने अपने कहानी संग्रह बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण बातें कहीं, जैसे 'जो चीज़ें मैं कविता, ग़ज़ल में नहीं कह पाता वो मैंने अपनी कहानी में लिखीं. भाषा का जो भदेसपन है, बिगड़ा रूप है, मेरी ग़ज़ल, मेरी ये ताकत है कि मैं अपने पात्र बार-बार देखकर लाता हूं… मेरी भाषा की कोमलता मुझे इस भदेसपन से बचा लेती है. जो कहानी मैं उठाता हूं वह समाज की है. जिनसे मुझे जान मिलती है. 'दास्तान-ए-शहादत' अलग तरह से लिखी गयी है जिसमें जो जगह है, उसका एक सच है, उसका एक कहानीपन. पंचतंत्र, हातिमताई…जैसी भाषाओं को मैंने पकड़ा जिन्हें पाठक पढ़ते हैं. मैं सियासी कहानी लिखता हूं, सियासत नहीं करता. जितनी भी कहानियां हैं सभी स्वयं को दांव पर रखकर लिखी गयी हैं. ये ऊपरी तौर पर दिखेगा नहीं, किन्तु इसके भीतर उतरने पर पता लगता है. मैं रचना कर्म के लिए नौकरी छोड़ने को तैयार हूं, नौकरी ऐसी है कि कोई ले पायेगा? जो चीज़ आप दे नहीं सकते वो आप ले कैसे सकते हैं. इन दोनों ही संवाद कार्यक्रमों में लीलाधर मंडलोई और वाणी प्रकाशन के प्रबन्ध निदेशक अरुण माहेश्वरी उपस्थित थे.