नई दिल्ली: “विवेकानन्द की बात करें तो डा कर्ण सिंह याद आते हैं. अरबिंदो का उल्लेख करें तो डा सिंह उनके सबसे विद्वान शिष्यों में से एक के रूप में सामने आते हैं. उनका विशाल कार्य, जिसमें अनेक पुस्तकें शामिल हैं, उनकी बौद्धिक खोज की गहराई को दर्शाता है. एक सच्चे कवि-दार्शनिक के तौर पर उन्होंने दर्शन, आध्यात्मिकता और पर्यावरण जैसे विविध विषयों की खोज की है.” यह बात सार्वजनिक जीवन में डा कर्ण सिंह के 75 वर्ष पूरे होने पर उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने उनके अभिनंदन समारोह में कही. उन्होंने कहा कि पिछली बार मुझे डा कर्ण सिंह के बारे में बोलने का सौभाग्य उनके 90वें जन्मदिन के अवसर पर मिला था. सार्वजनिक सेवा में उनकी यात्रा उसी दिन शुरू हुई, जिस दिन उनका जन्म हुआ था. उनके योगदान को केवल 75 वर्षों तक सीमित रखने से शायद ही उनकी विरासत की व्यापकता को सीमित करना होगा. सिंह फ्रांस में जन्मे तो उन्हें आलंकारिक रूप से आग से बपतिस्मा दिया गया था. इतिहास में उनके जैसी गवाही और भाग लेने का दावा बहुत कम लोग कर सकते हैं. उपराष्ट्रपति ने कहा कि 16 साल की उम्र तक, वह देश के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण क्षण में भारत में कश्मीर के विलय पत्र पर हस्ताक्षर करने के गवाह बने. उन्होंने सिर्फ निरीक्षण नहीं किया; उन्होंने उस ऐतिहासिक दस्तावेज की नींव को मजबूत किया. धनखड़ ने कहा कि18 साल की उम्र में, उन्होंने रीजेंट की भूमिका निभाई, जो एक महत्त्वपूर्ण अवसर था. मैं केवल 20 जून 1949 के उस दृश्य की भव्यता की कल्पना कर सकता हूं, जब वह रीजेंट के रूप में दिल्ली से श्रीनगर पहुंचे थे. हवाई अड्डे पर शेख अब्दुल्ला और उनके मंत्रिमंडल ने उनका स्वागत किया था. उस क्षण में उन्होंने न केवल खुद का, बल्कि हमारे इतिहास के एक महत्त्वपूर्ण मोड़ के दौरान भारत की ताकत और संप्रभुता का प्रतिनिधित्व किया था.
उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि शायद आज के कार्यक्रम के आयोजकों के मन में 1949 का वह महत्त्वपूर्ण दिन था जब उन्होंने डा सिंह की 75 वर्षों की सार्वजनिक सेवा का सम्मान करने का फैसला किया था. धनखड़ ने कहा कि राष्ट्र के जीवन में शायद ही कोई सकारात्मक क्षेत्र हो जिसे डा सिंह ने स्पर्श न किया हो- चाहे वह संसदीय लोकतंत्र या धर्म, संस्कृति, दर्शन, कूटनीति, साहित्य, वन्य जीवन या पर्यावरण हो. उनका योगदान विशाल और स्थायी है. जब भारत के पूर्व राजकुमारों और देश की एकता को मजबूत करने में उनकी भूमिका का इतिहास लिखा जाएगा, तो डा सिंह को निस्संदेह बहुत सम्माननीय स्थान मिलेगा. उपराष्ट्रपति ने कहा कि 1967 में शाही सुख-सुविधाओं से- विशेष रूप से जम्मू-कश्मीर राज्य के संवैधानिक प्रमुख से- चुनावी राजनीति में नाटकीय परिवर्तन करने का उनका निर्णय एक साहसिक और दूरदर्शी कदम था. ऐसा करते हुए, उन्होंने 13 मार्च, 1967 को 36 वर्ष की आयु में केंद्रीय मंत्रिमंडल के सबसे कम उम्र के सदस्य बनकर एक ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की. यह न केवल उनके करियर में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, बल्कि देश के युवाओं के आगमन का भी संकेत था, जिम्मेदारी का भार उठाने और देश के भविष्य को आकार देने के लिए तत्पर. उपराष्ट्रपति धनखड़ ने कहा कि डा सिंह लंबे समय से अंतर-धार्मिक सद्भाव के समर्थक रहे हैं, उन्होंने कई सार्वजनिक बैठकों और सम्मेलनों में इसकी मुखपत्रता की है, जिनमें से कई अच्छी तरह से प्रलेखित हैं. इन वर्षों में, वह आध्यात्मिकता और दर्शन के क्षेत्र में इतने प्रमुख व्यक्ति बन गए हैं कि जब भी महान विचारकों का उल्लेख किया जाता है तो उनका नाम स्वाभाविक रूप से उजागर होता है. उपराष्ट्रपति ने कहा कि अपनी मातृभाषा डोगरी के प्रति उनका गहरा प्रेम उनके द्वारा लिखी गई कई पुस्तकों में स्पष्ट है. शायद उनकी सबसे कम सराही गई उपलब्धियों में से एक भारत के राष्ट्रीय पशु, बाघ के संरक्षण में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है. यदि बाघ भारत की वन्यजीव विरासत का प्रतीक बना हुआ है और इसका अस्तित्व ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ पहल के माध्यम से सुनिश्चित किया गया है, तो यह काफी हद तक डा सिंह की अटूट प्रतिबद्धता के कारण है. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि विचार और कार्य दोनों में उनकी दृढ़ता और ताकत के लिए उन्हें कभी-कभी प्यार से ‘टाइगर’ कहा जाता है.