नई दिल्ली: “अक्सर हम दारा शुकोह को मुगलकाल में एक अपवाद की तरह देखते हैं लेकिन असल में वो कोई अपवाद नहीं है. हम अगर मुगलकाल के इतिहास को देखें तो उसमें एक निरन्तरता दिखती है जिसमें उसी तरह के काम हो रहे थे जो दारा कर रहे थे.” तनुजा कोठियाल ने यह बात मैनेजर पाण्डेय की सद्य: प्रकाशित पुस्तक ‘दारा शुकोह: संगम-संस्कृति का साधक’ के संदर्भ में उनके रचनाकर्म और वैचारिक सरोकारों पर ‘कृति चर्चा’ के दौरान कही. उन्होंने कहा कि वो चाहे अकबर का काल हो या जहांगीर और शाहजहां का काल हो. वह ऐसा काल था जिसमें बहुत से महत्त्वपूर्ण ग्रंथ रचे जा रहे थे. अलग-अलग भाषाओं के साहित्य और ऐतिहासिक-पौराणिक ग्रंथों का दूसरी भाषाओं में अनुवाद हो रहा था. राजकमल प्रकाशन की ओर से इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में आयोजित इस कार्यक्रम में मैनेजर पाण्डेय की सहधर्मिणी चंद्रा सदायत ने कहा कि एक साहित्यकार को सच्ची श्रद्धांजलि यही है कि हम आज उनके कृतित्त्व को इस रूप में याद कर रहे हैं. मुगल शहजादे दारा शुकोह पर आधारित यह शोध पुस्तक उनकी एक महत्त्वाकांक्षी योजना का हिस्सा थी, जिस पर वे लगभग तीस वर्षों से काम कर रहे थे.  आशुतोष कुमार ने कहा कि साहित्य में सामाजिक-राजनीतिक सरोकार और इतिहास दृष्टि पर जिन लोगों ने जोर दिया और उसके लिए संघर्ष किया उनमें मैनेजर पाण्डेय का नाम उल्लेखनीय हैं. वे अपने जीवन के आखिर तक कल्चरल एक्टिविज्म से जुड़े रहे. उन्होंने हमेशा इस बात पर जोर दिया कि साहित्य हमेशा समाज के भीतर ही वजूद रखता है और उसे समाज के सन्दर्भ में ही रचा और पढ़ा जा सकता है. इस किताब में दारा शुकोह एक शहजादा और भावी शासक कम; एक लेखक, कवि, शायर, सूफी दार्शनिक और अध्यात्म की खोज करने वाला व्यक्ति अधिक है. इस किताब को हिंदी में दारा संबंधी बहस के प्रस्थान बिन्दु के रूप में देखा जाना चाहिए.

सरवरुल हुदा ने मैनेजर पाण्डेय के व्यक्तित्व को याद करते हुए कहा कि मैंने बहुत लोगों को देखा है लेकिन इतना सोचने वाला इनसान दूसरा नहीं देखा. वो जीवन के आखिरी दिनों तक एक विद्यार्थी की तरह जिज्ञासु बने रहे. एक पाठक और एक शिक्षक के रूप में मैंने उनको जैसा देखा कि उनमें गुंजाइशें बहुत होती थीं. दारा शुकोह पर शोध करते हुए उन्होंने दारा को अपने वजूद का हिस्सा बना लिया. हम गौर करें तो इस किताब में वो सियासत नहीं है जिसे हम अक्सर उस कालखंड के लिए देखते हैं. उन्होंने कहा कि दारा शुकोह ने जो काम किए वो इतने लंबे समय में कई अलग-अलग तर्जुमों से गुजरते हुए हम तक उसी रूप में नहीं पहुंच पाए जैसे वो असल में थे. अखलाक अहमद आहन ने कहा कि दारा शुकोह ने संगम संस्कृति के लिए जो काम किए वो उल्लेखनीय है लेकिन दारा वो पहला व्यक्ति नहीं था जिसने ये काम किए और न ही अकबर ये काम करनेवाला पहला व्यक्ति था. यह हमारी बहुत पुरानी परंपरा रही है. हमारी भारतीय संस्कृति में जो ज्ञान परंपरा रही है उसमें कभी भी चीजों को व्यक्ति की पहचान से जोड़कर नहीं देखा जाता था. मजहबी पहचान को राजनीति से जोड़कर देखना औपनिवेशिक काल की देन है. हमारी आज़ादी की लड़ाई में कितने ही लोग थे जो पक्के मजहबी थे लेकिन उनमें आपस में कोई बैरभाव नहीं था. मजहबी होना कोई खराबी नहीं है. समस्या तब आती है जब हम मजहब को पहचान की राजनीति से जोड़कर देखते हैं. उन्होंने कहा, दारा शुकोह बुनियादी तौर पर एक सच्चा दार्शनिक है जिसकी अपनी एक तलाश है. एक सूफी दार्शनिक के तौर पर वो मजहबों को समझने की कोशिश करता है. अनामिका ने धर्म और मार्क्सवाद के बीच नए रचनात्मक संवाद की संभावना की ओर इशारा करते हुए कहा कि दारा शुकोह जिस संगम संस्कृति का साधक था उसका यह साझापन कैसे बचाया जाए यह हम सबकी साझी चिंता है. यह किताब भी उसी वाजिब चिंता से निकली है.