नई दिल्लीः यह हिंदी साहित्य में रूचि रखने वालों के लिए एक खास तरह का अकादमिक व्याख्यान है, जिसे वाणी डिजिटल शिक्षा शृंखला के तहत काशी हिंदू विश्वविद्यालय के डॉ प्रभाकर सिंह के सहयोग से आयोजित कर रहा है. 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' शृंखला के तीसरे व्याख्यान का विषय था, 'गांधीवाद और हिंदी साहित्य'. इस विषय पर विचार व्यक्त किया समीक्षक राजीव रंजन गिरि ने. गिरी का दावा था कि गांधीजी ख़ुद गांधीवाद जैसी चीज़ को स्वीकार नहीं करते थे. गांधीजी का मानना था कि वाद एक निकम्मी चीज़ है. 'हरिजन' पत्रिका में गांधी जी ने अपने लेखों के माध्यम से यह बताया था कि सत्य के लिए विचारों का ग्रहण और त्याग ज़रूरी है. वह अपने विचारों को समय के साथ बदलने और अग्रसर होने के हिमायती थे. गांधी के विचारों का इन्द्रधनुषी रूप अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, शरीर, श्रम, भय वर्जन आदि से मिलकर बनता है.
गिरी ने साहित्य में महात्मा गांधी की उपस्थिति की चर्चा करते हुए कहा कि दूसरे और तीसरे दशक में गांधी जी पर ख़ूब लिखा गया. विश्व साहित्य में फ्रांसीसी लेखक रोमा रोलां और रवीन्द्रनाथ टैगोर ने गांधी जी के ऊपर लिखा. बीसवीं सदी के गांधी उन विरल लोगों में से हैं जिनके ऊपर इतना कुछ लिखा गया कि कहना मुश्किल है. कविता में माखनलाल चतुर्वेदी, सोहनलाल द्विवेदी, सुमित्रानंदन पन्त, रामधारी सिंह दिनकर, बाबा नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र, हरिवंश राय बच्चन से होते हुए समकालीन कवि अरुण कमल और लीलाधर मंडलोई ने उन पर बेहतरीन कविताएं लिखी, तो कथा साहित्य में प्रेमचंद तो गांधी जी से अपना रिश्ता जोड़ते हुए कहते हैं मैं तो गांधी का कुदरती चेला हूँ. 'रंगभूमि' का सूरदास गांधीवादी चेतना से युक्त नायक है. महादेवी वर्मा के गद्य में भी गांधीवाद का प्रभाव है. फणीश्वर नाथ रेणु के ‘मैला आंचल’ और गिरिराज किशोर के ‘पहला गिरमिटिया’ में गांधी के विचारों का प्रभाव है. आज़ादी के बाद भारत के आंतरिक उपनिवेशन की प्रक्रिया पर कई विचारकों और समाजशास्त्रियों ने गांधी को प्रासंगिक माना. नई सदी में गांधी का विचार नये रूप में विकसित हो रहा है. गांधी अपने दुख में सब का दुख देखते थे और सत्य के उस रूप की हिमायत करते थे जो समय के अनुकूल हो और सर्वजन हिताय हो.