हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष डॉ. रामविलास शर्मा का जन्म 10 अक्टूबर, 1912 में हुआ था. साल 1938 में उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में पी.एच.डी. की डिग्री हासिल की, पर इससे पहले ही आलोचना के क्षेत्र में उनका काम शुरू हो चुका था. कहते हैं 1933 में वे सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के संपर्क में आए और 1934 में ही निराला पर एक आलोचनात्मक आलेख लिख दिया. इसे उनका पहला आलोचनात्मक लेख माना जाता है. इस लेख को उस समय की चर्चित पत्रिका 'चाँद' ने छापा था. इसके बाद रामविलास शर्मा निरंतर सृजन की ओर उन्मुख रहे. उन्होंने लगभग 100 महत्वपूर्ण पुस्तकों का सृजन किया, जिनमें 'गाँधी, आंबेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएँ', 'भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश', 'निराला की साहित्य साधना', 'महावीरप्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नव-जागरण', 'पश्चिमी एशिया और ऋग्वेद', 'भारत में अँग्रेजी राज्य और मार्क्सवाद', 'भारतीय साहित्य और हिंदी जाति के साहित्य की अवधारणा', 'भारतेंदु युग', 'भारत के प्राचीन भाषा परिवार और हिंदी' शामिल हैं.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के बाद डॉ. रामविलास शर्मा ही एक ऐसे आलोचक हैं, जो भाषा, साहित्य और समाज को एक साथ रखकर मूल्यांकन करते हैं. उनकी आलोचना प्रक्रिया में केवल साहित्य ही नहीं होता, बल्कि वे समाज, अर्थ, राजनीति, इतिहास भी शामिल है. इतिहास की समस्याओं से जूझना मानो उनकी पहली प्रतिज्ञा है. वह भारतीय इतिहास की हर समस्या का निदान खोजने में जुटे रहे. उन्होंने जब यह कहा कि आर्य भारत के मूल निवासी हैं, तब इसका विरोध हुआ था. उन्होंने कहा कि आर्य पश्चिम एशिया या किसी दूसरे स्थान से भारत में नहीं आए हैं, बल्कि सच यह है कि वे भारत से पश्चिम एशिया की ओर गए. उनके अनुसार पूंजीवादी इतिहासकारों ने उल्टी गंगा बहाई है. जो युग आर्यों के बहिर्गमन का है, उसे वे भारत में उनके प्रवेश का युग कहते हैं. निराला की साहित्य साधना' के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले रामविलास जी को शलाका सम्मान, भारत भारती पुरस्कार, व्यास सम्मान, साहित्य अकादमी की महत्तर सदस्यता, शताब्दी सम्मान से सम्मानित किया गया था. खास बात यह कि पुरस्कारों के साथ प्राप्त होने वाली राशि को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया और हमेशा उसे हिंदी के विकास में लगाने को कहा.