नई दिल्लीः 'लैंगिक विमर्श, थर्ड जेंडर और हिंदी' अपने आपमें एक अनूठा विषय है और विशद अध्ययन की मांग करता है. अच्छी बात यह है कि काशी हिंदू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर प्रभाकर सिंह के सहयोग से वाणी प्रकाशन की डिजिटल शिक्षा श्रृंखला के तहत कई अनूठे विषय उठाए जा रहे हैं. कोरोना काल में इस प्रकाशन समूह ने 'हिंदी साहित्य का इतिहास: अध्ययन की नयी दृष्टि, विचारधारा और विमर्श' व्याख्यानमाला शुरू कराई है. इस व्याख्यानमाला के तहत हिंदी के जानेमाने लेखक, आलोचक, विद्वान प्राचार्य अपने अपने वक्तव्य रख रहे हैं. इसी क्रम में 'लैंगिक विमर्श, थर्ड जेंडर और हिंदी' विषय पर व्याख्यान दिया स्त्रीवादी समीक्षक श्रद्धा सिंह ने. सिंह ने थर्ड जेंडर के ऐतिहासिक और पौराणिक स्रोतों की बात करते हुए भारतीय समाज में इनकी उपस्थिति के बारे में विवेचन किया.
श्रद्धा सिंह ने कई तरह के उदाहरण से यह बताया कि पुरातन काल में अपेक्षाकृत सम्मानजनक जीवन जी रहे किन्नरों के प्रति किस तरह ब्रिटिश काल में उपेक्षित व्यवहार किया गया. हिंदी साहित्य में इनकी व्यापक उपस्थिति का उल्लेख करते हुए उन्होंने शिव प्रसाद सिंह की कहानी 'बिंदा महाराज' से सहित अन्य कई कहानीकारों को याद किया. उन्होंने हिंदी उपन्यासों में नीरजा माधव का 'यमदीप', चित्रा मुद्गल के 'नालासोपारा' जैसी प्रमुख रचनाओं का विवेचन किया. कई कविताएं भी इस पर लिखी गयी है. वांग्मय पत्रिका के द्वारा थर्ड जेंडर पर महत्वपूर्ण सामग्री का प्रकाशन हुआ है. आत्मकथा के रूप में  'मैं हिजड़ा… मैं लक्ष्मी !' लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी की आत्मकथा को विशेष रचना के रूप में आपने विवेचित किया. आज के समय में थर्ड जेंडर को नये सिरे से देखने की ज़रूरत है.